डा.नीलम

पिता


 


हाँ पिता हूँ मैं


समाज की दकियानुसी


सोच का कायल


चंद नारों में या


निनादों में


*बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ*


का कायल हो कर भी


मोक्ष की चाहत में


पुत्र -लालसा रखता हूँ


 


कहीं कोई बेटी की


खून से लथपथ 


लाश देख कर भी


खून नहीं खौलता मेरा


बल्कि कछुए -सा मैं


अपने खोल में


छुप जाता हूँ


 


सच कहुँ तो.......


पुरूष हूँ न


झूठी मर्दानगी दिखाने


की खातिर


माँ की कोख को 


बेटी की कब्र 


बनाते भी मन


विचलित नहीं होता


ऐसा दिखाता हूँ


 


पर सच कहुँ तो


पिता हूँ ,काष्ठ नहीं


हृदय में मेरे भी


बहती है निर्मल -निर्झरिणी


भीगती है आँख भी


बस ऐकांत में 


बहती हैं 


 


सच पुरूष हूँ,पिता हूँ


पर बेटी का नहीं


बेटे का।


 


       डा.नीलम


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