रिम-झिम बरसात
रिम-झिम हो बरसात,
नहीं पिया यदि साथ-कहो,क्या रह पाओगे?
सावन की हो रात,
नहीं पिया यदि साथ-कहो,क्या रह पाओगे?
मेघ-गरजना से दिल दहले,
बिजली आँख मिचौली खेले।
लिए विरह-आघात-कहो, क्या रह पाओगे?
धरती ओढ़े धानी चुनरिया,
बलखाती-इठलाती गुजरिया।
वन-उपवन भरे पात-कहो, क्या रह पाओगे?
सन-सन बहे पवन पुरुवाई,
कारी बदरिया ले अँगड़ाई।
सिहर उठे तन-गात-कहो, क्या रह पाओगे?
बस्ती-कुनबा, गाँव-गलिन में,
बाग़-बग़ीचा, खेत-नदिन में।
क़ुदरत की सौग़ात-कहो, क्या रह पाओगे?
अनुपम प्रकृति-प्रेम-रस बरसे,
निरखि-निरखि जेहि हिय-चित हर्षे।
विह्वल मन न आघात-कहो, क्या रह पाओगे?
©डॉ. हरि नाथ मिश्र 9919446372
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