वक़्त की बात
वक़्त का ऐसा बदला मिजाज़,
मौत को भाग जाना पड़ा।
शर्म से झुक कर तूफ़ान को-
कश्ती साहिल पे लाना पड़ा।।
सर उठाकर चले जो ज़रा,
सर उसे ही झुकाना पड़ा।
देख मजबूरियाँ बर्फ़ को-
ख़ुद को बिजली बनाना पड़ा।।
दे सकी जो न ये सारी दुनिया,
ख़ुद ख़ुदा को वो लाना पड़ा।
ख़ुद की ख़ुद्दारी को जो न समझा-
मुहँ की उसको ही खाना पड़ा।।
जिसने पाला है मन में भरम,
अश्क़ उसको बहाना पड़ा।
प्रेम के भाव को जो न समझा-
हाथ मल-मल के जाना पड़ा।।
नाम रौशन किया जिसने जग में,
बुद्धि-कौशल दिखाना पड़ा।
जो चढ़ा पर्वतों की शिखर पर-
जोखिम उसको उठाना पड़ा।।
वक़्त का ऐसा बदला मिजाज़,
मौत को भाग जाना पड़ा।।
©डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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