डॉ0 हरि नाथ मिश्र

छठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


सोचत चले नंद मग माहीं।


बसु कै कथन असत जनु नाहीं।।


    करिहैं रच्छा नाथहिं ओनकर।


    जे केहु सरन जाइ नाथकर।।


क्रूर निसिचरी पुतना नामा।


सिसु-बध बस रह जाकर कामा।।


    कंसहिं आयसु लेइ पूतना।


     ग्राम-नगर जा बिनू सूचना।।


मारै सिसुहिं बिनू सकुचाई।


घुमि-फिरि,इत-उत,धाई-धाई।।


    जहँ प्रभु-किर्तन-भजन न भवहीं।


    तहँ प्रभाव खलु निसिचर रहहीं।।


नभ-मग चलै पूतना डाइन।


सकै बदलि रूपहि जस चाहिन।।


     आइ नंद-गोकुल के पासा।


     सुघड़ जुवति इव पहिरि लिबासा।।


प्रबिसि पूतना गोकुल ग्रामा।


इत-उत फिरन लगी छबि-धामा।।


     सुंदर-सुरुचि रूप धरि नारी।


     बेला-पुष्पन्ह केस सवाँरी।।


भूषन-बसन सुसज्जित होके।


मटकत डाइन चलै बेरोके।।


    पतरी कमर पूतना नारी।


     तासु नितम्भ-कुचन्ह रहँ भारी।।


तिरछी चितवन,मधु मुस्काना।


रहें पूतना निर्मम बाना।।


    घायल होइ सकल पुरवासी।


    पाछे दौरहिं होय उलासी।।


लगै पूतना रमणी-रूपा।


कमल धारि कर लक्ष्मि अनूपा।।


   निज पति दरसन हेतू आई।


  अस गोपिन्ह मन परी लखाई।।


प्रबिसी झटपट नंदहिं गेहा।


बालक हेतू बिनु संदेहा।।


   लखी कृष्न तहँ सैया ऊपर।


   नैन मूँदि रहँ किसुनहिं वहिं पर।।


रहे छुपाय तेज निज किसुना।


जस रह राख अगन अदर्सना।।


    आतम कृष्न चराचर प्रानी।


     सिसु-ग्रह अहहि पूतना जानी।।


अवरु पूतना जानि अबिद्या।


नैन न खोले प्रभू अभेद्या।।


    तेज प्रकास अबिद्या नासा।


    नासहि तासु न लीला आसा।।


यहिं तें प्रभु रहँ मूँदे नैना।


बाल-घातिनी जानि पूतना।।


    रज्जु जानि जन पकरहिं अहिहीं।


    रखी गोद प्रभु पुतना भ्रमहीं ।।


मखमल खोल खडग जस रहही।


भूषन-बसन पूतना अहही ।।


     जानि ताहि इक सुंदर नारी।


      जसुमति-रोहिनि बिनू बिचारी।।


गृहहिं प्रबेस पूतना दीन्हा।


जाने बिनू न कोऊ चीन्हा।।


    लइ सिसु किसुनहिं गोद बिधाना।


    लगी करावन स्तन पाना ।।


प्रखर गरल रह तिसु पय माहीं।


विषमय स्त�


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