तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-6
मुनि अगस्त्य धाइ प्रभु मिलहीं।
कुसलइ छेमु पूछि पुनि कहहीं।।
हे प्रभु रामइ कृपा-निकेता।
तुम्हरो दरस परम सुख देता।।
सुनि मुनि-बचन राम मुस्काने।
प्रनमहिं सानुज मुनि-सम्माने।।
दइ असीष कुंभज तब कहऊ।
मम हिय प्रभु सानुज-सिय रहऊ।।
प्रभु दुख-भंजन,कृपा-निकेतन।
बिनु प्रभु-कृपा न जग जड़-चेतन।।
राम-प्रकास रहहि तिहुँ लोका।
नाम सुमिरि जग भवहि असोका।
राम-नाम जग जे जन जपहीं।
भव-सागर झट ते नर तिरहीं।।
जाको मुहँ प्रभु-नाम न आवा।
ताकर जनम बिरथ होइ जावा।।
ऋषि-मुनि,सुर-जोगी अरु ध्यानी।
बेद-सास्त्र-पाठी अरु ग्यानी ।।
सुमिरन सबहिं करैं दिन-राती।
पा प्रभु-दरस जुड़ावैं छाती।।
तब रघुबर अगस्त्य तें कहहीं।
बिदित आपु हम काहें अवहीं।।
हे मुनि नाथ आपु बड़ ग्यानी।
काल-चक्र-गति सभ पहिचानी।।
चाहहुँ मैं राच्छस-कुल नासा।
मों बताउ कहँ करीं निवासा।।
जहँ रहि मुक्त करउँ मैं धरती।
असुर-अतंक-अनल जे जरती।।
करउँ नास मैं ऋषि-मुनि-द्रोही।
जप-तप,धरम-करम-बिद्रोही।।
मुनि मुस्काइ कहे मृदु बानी।
धामहिं एक नाम मैं जानी ।।
पंचबटी तिसु नाम मनोरम।
हरहु साप तहँ रहि मुनि गौतम।।
पंचबटी दंडक बन माहीं।
सापित मुनि गौतम की ताहीं।।
जाइ तहाँ प्रभु करउ निवासा।
मारउ असुरन्ह मुनि जे त्रासा।।
दंडक बन गोदावरि-तीरा।
रहन लगे प्रभु छाइ कुटीरा।।
दोहा-मिले जटायू सन प्रभू,वहि बन करत निवास।
खग-मृग अरु बन-जीव सभ,प्रभु सँग रहहिं उलास।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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