डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-14


 


नर इ होहि कि होय अवतारा।


अस दसमुख मन करै बिचारा।।


    खर-दूषन-त्रिसिरा बलवाना।


    मारि सकत इन्ह बस भगवाना।।


चित-रंजक,भंजक दुख भारी।


लइ प्रसाद प्रभु जगत सुखारी।।


     चाहेहुँ मैं भव-सागर तरना।


      बिनु प्रभु-कृपा न हो अस करना।।


मैं बड़ अघी-अबुध-अग्यानी।


तामस तन-मन कस प्रभु जानी।।


    ठानि क रारि राम सँग कबहूँ।


    छल करि तासु नारि मैं हरहूँ।।


यहि बिधि मोर होय कल्याना।


राम-हस्त मरि सुर-सुख पाना।।


    मनहिं बिचार अकेल दसानन।


    गया मरिच पहँ आनन-फानन।।


करय मरीच सिंधु-तट बासा।


भगवत-कृपा राखि उर आसा।।


     सीष नाइ रावन तब कहऊ।


     भगिनी-कथा-ब्यथा जे रहऊ।।


तबहिं नीच अवनत सिर करहीं।


स्वारथ-सिद्धि जबहिं ते चहहीं।।


     धनु-हँसुवा अरु ब्याल-बिलारी।


      नवत होंहि नहिं जग-हितकारी।।


मधु तिष्ठति खल-जिह्वा अग्रे।


गरल-कलश-मुख दुग्ध समग्रे।।


छंद-रावन कहेसि मरीच तुम्ह,जावहु कपट-मृग बनि उहाँ।


       सीता सहित दसरथ-तनय,करते निवासइ बन जहाँ।।


        आनहु त्रिया तुम्ह राम कै, करि के कपट-छल जस बनै।


      करि के हरन मैं राम-नारी, लेहुँ बदला सभ इहाँ।।


                  डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                   9919446372


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