तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-14
नर इ होहि कि होय अवतारा।
अस दसमुख मन करै बिचारा।।
खर-दूषन-त्रिसिरा बलवाना।
मारि सकत इन्ह बस भगवाना।।
चित-रंजक,भंजक दुख भारी।
लइ प्रसाद प्रभु जगत सुखारी।।
चाहेहुँ मैं भव-सागर तरना।
बिनु प्रभु-कृपा न हो अस करना।।
मैं बड़ अघी-अबुध-अग्यानी।
तामस तन-मन कस प्रभु जानी।।
ठानि क रारि राम सँग कबहूँ।
छल करि तासु नारि मैं हरहूँ।।
यहि बिधि मोर होय कल्याना।
राम-हस्त मरि सुर-सुख पाना।।
मनहिं बिचार अकेल दसानन।
गया मरिच पहँ आनन-फानन।।
करय मरीच सिंधु-तट बासा।
भगवत-कृपा राखि उर आसा।।
सीष नाइ रावन तब कहऊ।
भगिनी-कथा-ब्यथा जे रहऊ।।
तबहिं नीच अवनत सिर करहीं।
स्वारथ-सिद्धि जबहिं ते चहहीं।।
धनु-हँसुवा अरु ब्याल-बिलारी।
नवत होंहि नहिं जग-हितकारी।।
मधु तिष्ठति खल-जिह्वा अग्रे।
गरल-कलश-मुख दुग्ध समग्रे।।
छंद-रावन कहेसि मरीच तुम्ह,जावहु कपट-मृग बनि उहाँ।
सीता सहित दसरथ-तनय,करते निवासइ बन जहाँ।।
आनहु त्रिया तुम्ह राम कै, करि के कपट-छल जस बनै।
करि के हरन मैं राम-नारी, लेहुँ बदला सभ इहाँ।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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