चौथा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-2
कर तें पकरि सिला पे पटका।
रहा मचावत उहाँ तहलका।।
पर ऊ कन्या नहीं सधारन।
देबी-बहिन किसुन-मन-भावन।।
तजि कर कंसइ उड़ी अकासा।
आयुध गहि अठ-भुजा उलासा।।
चंदन मनिमय भूषन-भूषित।
माला गरे बसन तन पूजित।।
धनु-त्रिसूल अरु बान-कटारा।
गदा-संख-चक-ढालहिं धारा।।
सिद्ध-अपछरा-चारन-किन्नर।
नागहिं अरु गंधरबहिं-सुर-नर।।
अर्पन करत समग्री नाना।
लगे करन स्तुति धरि ध्याना।।
देबि स्वरूपा कन्या कहही।
सुनहु कंस तू मूरख अहही।।
मारि मोंहि नहिं तुमहीं लाभा।
कहुँ जन्मा तव रिपु लइ आभा।।
कहत अइसहीं अन्तर्धाना।
माया भई जगत सभ जाना।।
देबि-बचन सुनि बिस्मित कंसा।
बसू-देवकी करत प्रसंसा।।
कहा सुनहु मम अति प्रिय बहना।
नहिं माना बसुदेव कै कहना।।
बधत रहे हम सभ सुत तोरा।
छमहुँ मोंहि तव भ्रात कठोरा।।
मैं बड़ पापी-अधम-अघोरा।
बंधुन तजा रहे जे मोरा।।
होंहुँ अवसि मैं नरकहि गामी।
घाती-ब्रह्म-कुटिल सरनामी।।
मम जीवन भे मृतक समाना।
बड़ आतम तुम्ह अब मैं जाना।।
नहिं लावहु निज मन-चित सोका।
पुत्र-सोक बिनु रहहु असोका।।
दोहा-सुनहु बसू अरु देवकी, कहा कंस गंभीर।
कर्म प्रधानहिं जग अहहि,करमहि दे सुख-पीर।।
माटी तन बिगड़इ-बनइ, पर रह माटी एक।
अहहि आतमा एक बस,जदपि सरीर अनेक।।
जानै जे नहिं अस रहसि,समुझइ नहिं ई भेद।
बपुहिं कहइ आतम उहहि,आतम-बपु न बिभेद।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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