डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तीसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-4


 


करहिं देवकी माता बंदन।


तोरैं नाथ सकल भव-बंधन।।


    तुम्ह प्रभु ब्रह्महिं जोति स्वरूपा।


    गुनहिं बिकार बिहीन अनूपा।।


निर्बचनीय बिसेषन हीना।


निष्क्रिय पर प्रभु सत्तासीना।।


     बुद्धि-प्रकासक बिष्नू तुमहीं।


      मम गृह आयि कृपा जे करहीं।।


उभय 'परार्धहि' पूरन जबहीं।


अंत उमिरि ब्रह्मा कै तबहीं।।


     होंहिं बिनष्टहिं तीनिउ लोका।


     कालहिं सक्ति-प्रभाव असोका।।


महाभूत तब पाँचउ बदलहिं।


अहंकार सँग कूदहिं-उछलहिं।।


     अहंकार तब बनि महतत्त्वा।


      जाइ समाय प्रकृति के तत्वा।।


ताहि समय बस तुम्ह अवसेषा।


रहहु नाथ तुम्ह रूपहिं सेषा।।


     'सेष'नाम यहि कारन तुम्हरो।


      नाम इहइ जानै जग सगरो।।


काल बिबिध नहिं जाकर सीमा।


अगनित बरस-निमिष निःसीमा।।


दोहा-काल-बरस अरु समय-पल,सभ कछु तुमहीं नाथ।


        उतरे प्रभु तुम्ह मम सदन,बंदउँ अवनत माथ।।


                   डॉ0हरि नाथ मिश्र


                    9919446372


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