डॉ0 हरि नाथ मिश्र

वन-पर्वत को लाँघती, मिलन हेतु प्रिय संग।


अल्हड़ सरिता बह चली,हिय में लिए उमंग।।


 


गाँव-नगर होती हुई,खेत और खलिहान।


प्यासे को जल बाँटती, मिलती सिंधु-तरंग।।


 


स्वयं तो प्यासी आत्मा,किंतु हरे जग-प्यास।


अमर प्रेम की यह कथा,प्रेम-अनूठा ढंग।।


 


पिया सिंधु से अंत में,मिले नदी जा दूर।


जीव-ब्रह्म के मिलन इव, विमल रूप यह रंग।।


 


इठलाती यह अवनि पर,चंचल-प्रबल-प्रवाह।


बलखाती-गाती बहे,शिला-खंड कर भंग।।


 


मिलकर प्रीतम सिंधु से,होती शीघ्र अदृश्य।


सरित-सिंधु अद्भुत मिलन,ज्यों रति-मिलन अनंग।।


 


महि की शोभा है नदी,हर प्राणी का प्राण।


जल दे जीवन तृप्त कर,बहती लगे विहंग।।


            © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


               9919446372


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