वन-पर्वत को लाँघती, मिलन हेतु प्रिय संग।
अल्हड़ सरिता बह चली,हिय में लिए उमंग।।
गाँव-नगर होती हुई,खेत और खलिहान।
प्यासे को जल बाँटती, मिलती सिंधु-तरंग।।
स्वयं तो प्यासी आत्मा,किंतु हरे जग-प्यास।
अमर प्रेम की यह कथा,प्रेम-अनूठा ढंग।।
पिया सिंधु से अंत में,मिले नदी जा दूर।
जीव-ब्रह्म के मिलन इव, विमल रूप यह रंग।।
इठलाती यह अवनि पर,चंचल-प्रबल-प्रवाह।
बलखाती-गाती बहे,शिला-खंड कर भंग।।
मिलकर प्रीतम सिंधु से,होती शीघ्र अदृश्य।
सरित-सिंधु अद्भुत मिलन,ज्यों रति-मिलन अनंग।।
महि की शोभा है नदी,हर प्राणी का प्राण।
जल दे जीवन तृप्त कर,बहती लगे विहंग।।
© डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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