डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पाँचवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


कहहिं कथा सुकदेव मुनी जी।


सुनहिं परिच्छित मुदितय चित जी।।


     बाबा नंद उदार-मनस्वी।


     मनसा-वाचा लगहिं तपस्वी।।


पुत्र-जनम सुनि हृदय-हुलासा।


भए अनंदित भरे उलासा।।


     बस्त्राभूषन बाबा नंदहिं।


     धारन कीन्हा अति आनंदहिं।।


ब्रह्मन-पंडित-बेद क ग्यानी।


स्वस्तिक बचन कीन्ह निज बानी।।


     सुरहिं-पितर बिधिवत पुजवावा।


      जात-करम निज तनय करावा।।


दुइ लख गऊ-बसन-आभूषन।


कीन्हा नंद दान द्विज-ब्रह्मन।।


      कंचन बसन-रतन-आच्छादित।


      सात तिलहिं गिरि दानहिं समुचित।।


सुद्धीकरन-गरभ-संस्कारा।


देइ क कीन्हा उपक्रम सारा।।


      सुद्धि आतमा होवै तबहीं।


       होय आत्म-ग्यान मन जबहीं।।


मागध-सूत-बंदिजन-ब्रह्मन।


करहिं स्तुती हरषित चित-मन।।


     बजै दुंदुभी ब्रज चहुँ-ओरा।


      भेरी बाजै गायन-सोरा ।।


घर-आँगन औरउ चौबारा।


बाहर-भीतर औरु दुवारा।।


     साफ-सफाई, जल छिड़कावा।


      करि सभ जन निज गृह महँकावा।।


पल्लव-माला,बंदनवारा।


धुजा-पताका गृहहिं सवाँरा।।


     बच्छ-गऊ-बृषभहिं सभ सोभित।


     हल्दी-तेल-लेप मन मोहित ।।


मोर-पंख-गेरू अरु माला।


कनक-जँजीरहिं बसन निराला।।


दोहा-गऊ-बच्छ अरु बृषभ सभ,सजि-सजि रह रम्भाय।


        घुघुरू-घंटी गर बजे,उछरत-कूदत जाँय ।।


                         डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                           9919446372


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