पाँचवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1
कहहिं कथा सुकदेव मुनी जी।
सुनहिं परिच्छित मुदितय चित जी।।
बाबा नंद उदार-मनस्वी।
मनसा-वाचा लगहिं तपस्वी।।
पुत्र-जनम सुनि हृदय-हुलासा।
भए अनंदित भरे उलासा।।
बस्त्राभूषन बाबा नंदहिं।
धारन कीन्हा अति आनंदहिं।।
ब्रह्मन-पंडित-बेद क ग्यानी।
स्वस्तिक बचन कीन्ह निज बानी।।
सुरहिं-पितर बिधिवत पुजवावा।
जात-करम निज तनय करावा।।
दुइ लख गऊ-बसन-आभूषन।
कीन्हा नंद दान द्विज-ब्रह्मन।।
कंचन बसन-रतन-आच्छादित।
सात तिलहिं गिरि दानहिं समुचित।।
सुद्धीकरन-गरभ-संस्कारा।
देइ क कीन्हा उपक्रम सारा।।
सुद्धि आतमा होवै तबहीं।
होय आत्म-ग्यान मन जबहीं।।
मागध-सूत-बंदिजन-ब्रह्मन।
करहिं स्तुती हरषित चित-मन।।
बजै दुंदुभी ब्रज चहुँ-ओरा।
भेरी बाजै गायन-सोरा ।।
घर-आँगन औरउ चौबारा।
बाहर-भीतर औरु दुवारा।।
साफ-सफाई, जल छिड़कावा।
करि सभ जन निज गृह महँकावा।।
पल्लव-माला,बंदनवारा।
धुजा-पताका गृहहिं सवाँरा।।
बच्छ-गऊ-बृषभहिं सभ सोभित।
हल्दी-तेल-लेप मन मोहित ।।
मोर-पंख-गेरू अरु माला।
कनक-जँजीरहिं बसन निराला।।
दोहा-गऊ-बच्छ अरु बृषभ सभ,सजि-सजि रह रम्भाय।
घुघुरू-घंटी गर बजे,उछरत-कूदत जाँय ।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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