डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पाँचवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-3


 


एकमात्र स्वामी जग कृष्ना।


बैभव तासु बिपुल मधु रसना।।


     किसुन-जनम-उत्सव बड़ रोचक।


    दूध-दही लइ गोपिहिं मोहक।


इक-दूजहिं मुख लेपहिं सारी।


छिरकहिं मक्खन-घृत अरु बारी।।


   भूषन-बसन-गऊ बहु दीन्हा।


    नर्तक-मागध-सूतहिं चीन्हा।।


बंदी-गुनी सभें जन पाए।


बाबा नंद दीन्ह मन भाए।।


    भवहिं प्रसन्न बिष्नु भगवाना।


    होतै कर्म पुन्य अरु दाना ।।


अस बिचार करि बाबा नंदा।


दान-पुन्य बहु करहिं अनंदा।।


    करिहैं मंगल बिष्नु-बिधाता।


     अबहिं इ लइका जे नवजाता।।


भूषन-बसन धारि रोहिनी।


सूरत-सीरति जासु मोहिनी।


     स्वागत मगन सबहिं नारिन्ह कै।


     करैं रोहिनी हुलसि-हुलसि कै।।


भवा ब्रजहिं प्रभु-तेज-निवासा।


रिधि-सिधि औरु सकल गुन-बासा।।


दोहा-ब्रज मा मंगल-गान सभ,करहीं भरे उलास।


        पसु-पंछी अपि मनुज सँग,सभ हिय रहा उछाह।।


                       डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


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