पाँचवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-3
एकमात्र स्वामी जग कृष्ना।
बैभव तासु बिपुल मधु रसना।।
किसुन-जनम-उत्सव बड़ रोचक।
दूध-दही लइ गोपिहिं मोहक।
इक-दूजहिं मुख लेपहिं सारी।
छिरकहिं मक्खन-घृत अरु बारी।।
भूषन-बसन-गऊ बहु दीन्हा।
नर्तक-मागध-सूतहिं चीन्हा।।
बंदी-गुनी सभें जन पाए।
बाबा नंद दीन्ह मन भाए।।
भवहिं प्रसन्न बिष्नु भगवाना।
होतै कर्म पुन्य अरु दाना ।।
अस बिचार करि बाबा नंदा।
दान-पुन्य बहु करहिं अनंदा।।
करिहैं मंगल बिष्नु-बिधाता।
अबहिं इ लइका जे नवजाता।।
भूषन-बसन धारि रोहिनी।
सूरत-सीरति जासु मोहिनी।
स्वागत मगन सबहिं नारिन्ह कै।
करैं रोहिनी हुलसि-हुलसि कै।।
भवा ब्रजहिं प्रभु-तेज-निवासा।
रिधि-सिधि औरु सकल गुन-बासा।।
दोहा-ब्रज मा मंगल-गान सभ,करहीं भरे उलास।
पसु-पंछी अपि मनुज सँग,सभ हिय रहा उछाह।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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