डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-21


 


देखि लखन भे राम अधीरा।


कारन कवन कहहु कस पीरा।।


     बहु भयभीत लखन तब कहहीं।


     सुनि प्रभु राम बिकल बहु भवहीं।।


सुनहु लखन बहु राच्छस यहि बन।


इत-उत बिचरैं हर-पल,हर-छन।।


     कहहि मोर मन सिय नहिं तहवाँ।


     वाको तजि आयो तुम्ह इहवाँ।।


करि अनुमान तुरत प्रभु धावहिं।


तट गोदावरि कुटिया जावहिं।।


     पाइ न सीतहिं कुटिया माहीं।


     हो बहु बिकल राम बिलखाहीं।।


खोजत-फिरत राम चहुँ-ओरा।


जनु कोउ चकई चकित चकोरा।।


     खग-मृग,पसु-पंछी जे मिलहीं।


     राम बिकल मन सभतें पुछहीं।।


गिरि-तरु, पुष्प-लता सभ सुनहू।


कहँ सिय रहहिं मोर तुम्ह कहहू।।


    होंहिं मुदित निज भागि सराहहिं।


    सुक-कपोत-खंजन मिलि गावहिं।।


भ्रमर-कोकिला,मीन-कुमुदिनी।


गज-केहरि,ससि-हंस-कमलिनी।।


    सब मिलकर मनोज-धनु-हंसा।


     प्रभु-मुख सुनि भे मुदित प्रसंसा।।


सिय बिनु राम बिकल जनु ऐसे।


ब्याकुल बिरही-कामुक जैसे।।


    सुखदायक प्रभु अज-अबिनासी।


    मनुज-चरित लखि आवै हाँसी।।


मिला जटायू तब मग माहीं।


सुमिरत राम-नाम वहिं ठाहीं।।


     निज गति कारन राम बतावा।


     सीता-हरन व गमन जतावा।।


दसकंधर लइ सीयहिं भागा।


पंखहीन करि मोंहि अभागा।।


     दक्खिन-दिसि लइ रावन गयऊ।


     जेहिं दिसि प्रभु तिसु लंका भयऊ।।


प्रभु सुनि दुखद गीध कै बैना।


तिसु तन छूइ दीन्ह सुख-चैना।।


     भइ प्रसन्न तुम्ह तव तन राखहु।


      जीवन भर सुख पूरा पावहु।।


पावहिं अधम सुगति चररन्ह तें।


मैं त्यागहुँ तन तिनहिं छुवन तें।।


दोहा-करहु कृपा प्रभु मोंहि पे,गीध कहा सबिषाद।


         राम परसि तिसु बदन कह,सुर-पुर होहु अबाद।।


         गीध-प्रार्थना सुनि प्रभू,भेजि ताहि हरि-धाम।


         करि तिसु सभ अंतिम-क्रिया,चले बिनू बिश्राम।।


        जात समय प्रभु तब कहे,गीधराजु समुझाइ।


         मम पितु सन तुम्ह मत कह्यो,सीय-हरन तहँ जाइ।।


मम सर मरि जब रावन जाई।


स्वयं कथा सभ पितुहिं बताई।।


                  डॉ0हरि नाथ मिश्र


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आठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


रहे पुरोहित जदुकुल नीका।


पंडित गर्गाचारहिं ठीका।।


    आए गुरु गोकुल इक बारा।


    जा पहुँचे वै नंद-दुवारा ।।


पाइ गुरुहिं तहँ नंदयिबाबा।


करि प्रनाम लीन्ह असबाबा।।


     ब्रह्मइ गुरु अरु गुरु भगवाना।


     अस भावहिं पूजे बिधि नाना।।


बिधिवत पाइ अतिथि-सत्कारा।


भए मगन गुरु नंद-दुवारा।।


     करि अभिवादन निज कर जोरे।


      कहे नंद अति भाव-बिभोरे ।।


तुमहीं पूर्णकाम मैं मानूँ।


केहि बिधि सेवा करउँ न जानूँ।।


    बड़े भागि जे नाथ पधारे।


     अवसि होहि कल्यान हमारे।।


निज प्रपंच अरु घर के काजा।


अरुझल रहहुँ सुनहु महराजा।।


     पहुँचि पाउँ नहिं आश्रम तोहरे।


      छमहु नाथ अभागि अस मोरे।।


भूत-भविष्य-गरभ का आहे।


जानै नहिं नर केतनहु चाहे।।


     ब्रह्म-बेत्ता हे गुरु ग्यानी।


     जोतिष-बिद्या तुमहिं बखानी।।


करि के नामकरन-सँस्कारा।


मम दुइ सुतन्ह करउ उपकारा।।


    मनुज जाति कै ब्रह्मन गुरुहीं।


    धरम-करम ना हो बिनु द्विजहीं।।


                डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


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