तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-21
देखि लखन भे राम अधीरा।
कारन कवन कहहु कस पीरा।।
बहु भयभीत लखन तब कहहीं।
सुनि प्रभु राम बिकल बहु भवहीं।।
सुनहु लखन बहु राच्छस यहि बन।
इत-उत बिचरैं हर-पल,हर-छन।।
कहहि मोर मन सिय नहिं तहवाँ।
वाको तजि आयो तुम्ह इहवाँ।।
करि अनुमान तुरत प्रभु धावहिं।
तट गोदावरि कुटिया जावहिं।।
पाइ न सीतहिं कुटिया माहीं।
हो बहु बिकल राम बिलखाहीं।।
खोजत-फिरत राम चहुँ-ओरा।
जनु कोउ चकई चकित चकोरा।।
खग-मृग,पसु-पंछी जे मिलहीं।
राम बिकल मन सभतें पुछहीं।।
गिरि-तरु, पुष्प-लता सभ सुनहू।
कहँ सिय रहहिं मोर तुम्ह कहहू।।
होंहिं मुदित निज भागि सराहहिं।
सुक-कपोत-खंजन मिलि गावहिं।।
भ्रमर-कोकिला,मीन-कुमुदिनी।
गज-केहरि,ससि-हंस-कमलिनी।।
सब मिलकर मनोज-धनु-हंसा।
प्रभु-मुख सुनि भे मुदित प्रसंसा।।
सिय बिनु राम बिकल जनु ऐसे।
ब्याकुल बिरही-कामुक जैसे।।
सुखदायक प्रभु अज-अबिनासी।
मनुज-चरित लखि आवै हाँसी।।
मिला जटायू तब मग माहीं।
सुमिरत राम-नाम वहिं ठाहीं।।
निज गति कारन राम बतावा।
सीता-हरन व गमन जतावा।।
दसकंधर लइ सीयहिं भागा।
पंखहीन करि मोंहि अभागा।।
दक्खिन-दिसि लइ रावन गयऊ।
जेहिं दिसि प्रभु तिसु लंका भयऊ।।
प्रभु सुनि दुखद गीध कै बैना।
तिसु तन छूइ दीन्ह सुख-चैना।।
भइ प्रसन्न तुम्ह तव तन राखहु।
जीवन भर सुख पूरा पावहु।।
पावहिं अधम सुगति चररन्ह तें।
मैं त्यागहुँ तन तिनहिं छुवन तें।।
दोहा-करहु कृपा प्रभु मोंहि पे,गीध कहा सबिषाद।
राम परसि तिसु बदन कह,सुर-पुर होहु अबाद।।
गीध-प्रार्थना सुनि प्रभू,भेजि ताहि हरि-धाम।
करि तिसु सभ अंतिम-क्रिया,चले बिनू बिश्राम।।
जात समय प्रभु तब कहे,गीधराजु समुझाइ।
मम पितु सन तुम्ह मत कह्यो,सीय-हरन तहँ जाइ।।
मम सर मरि जब रावन जाई।
स्वयं कथा सभ पितुहिं बताई।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
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आठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1
रहे पुरोहित जदुकुल नीका।
पंडित गर्गाचारहिं ठीका।।
आए गुरु गोकुल इक बारा।
जा पहुँचे वै नंद-दुवारा ।।
पाइ गुरुहिं तहँ नंदयिबाबा।
करि प्रनाम लीन्ह असबाबा।।
ब्रह्मइ गुरु अरु गुरु भगवाना।
अस भावहिं पूजे बिधि नाना।।
बिधिवत पाइ अतिथि-सत्कारा।
भए मगन गुरु नंद-दुवारा।।
करि अभिवादन निज कर जोरे।
कहे नंद अति भाव-बिभोरे ।।
तुमहीं पूर्णकाम मैं मानूँ।
केहि बिधि सेवा करउँ न जानूँ।।
बड़े भागि जे नाथ पधारे।
अवसि होहि कल्यान हमारे।।
निज प्रपंच अरु घर के काजा।
अरुझल रहहुँ सुनहु महराजा।।
पहुँचि पाउँ नहिं आश्रम तोहरे।
छमहु नाथ अभागि अस मोरे।।
भूत-भविष्य-गरभ का आहे।
जानै नहिं नर केतनहु चाहे।।
ब्रह्म-बेत्ता हे गुरु ग्यानी।
जोतिष-बिद्या तुमहिं बखानी।।
करि के नामकरन-सँस्कारा।
मम दुइ सुतन्ह करउ उपकारा।।
मनुज जाति कै ब्रह्मन गुरुहीं।
धरम-करम ना हो बिनु द्विजहीं।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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