डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पाँचवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-4


 


कछु दिन बाद सौंपि ब्रज-भारा।


गाँव-गऊ गोपिहिं कहँ सारा।।


    गए नंद जहँ मथुरा नगरी।


    अरपन करन कंस -कर सगरी।।


नंद-आगमन सुनि बसुदेवा।


गए नंद जहँ आश्रय लेवा।।


     लखतै बसू नंद भे ठाढ़ा।


     बरनि न जाए प्रेम-प्रगाढ़ा।।


विह्वल तन-मन उरहिं लगावा।


मृतक सरीर प्रान जस पावा।।


    करि आदर-स्वागत-सतकारा।


    तुरतै दइ आसन बइठारा।।


रह न आस तुमहीं कोउ सुत कै।


पर अब पायो सुत निज मन कै।।


     बहुतै भागि मिलन भय हमरा।


      अद्भुत मिलन मोर अरु तुम्हरा।।


प्रेमी जन जग बिरलइ मिलहीं।


मिलहिं ज ते पुनि जन्महिं भवहीं।।


  जे बन रहहिं सुजन सँग अबहीं।


  बंधु-बांधव- गउहिं तुमहीं।।


      किम बन उहहिं अहहिं परिपुरना।


      घासहिं-लता-नीर अरु परना।।


अहहिं न पसु सभ कुसल-निरोगा।


मिलै घास किम तिनहिं सुजोगा।।


    कहहु भ्रात रह कस सुत मोरा।


   संग रोहिनी मातुहिं-छोरा ।।


लालन-पालन जसुमति करहीं।


माता-पिता तुमहिं सब अहहीं।।


    जातें जगत सुजन सुख लहहीं।


    धर्महिं-अर्थ-काम नर उहहीं।।


नंदयि कहे सुनहु बसुदेवा।


बहु सुत तोर कंस हरि लेवा।


    रही एक कन्या तव अंता।


     स्वर्गहिं गई उहउ तुरंता।।


सब जन सुख-दुख भागि सहारे।


निसि-दिन प्रानी उहहि निहारे।।


   सुख-दुख कारन केवल भागी।


   जानै जे न रहै अनुरागी ।।


दोहा-सुनहु भ्रात हे नंद तुम्ह,जाउ तुरत निज गाँव।


        इहाँ होत उत्पात बड़,रुकउ न अब यहि ठाँव।।


       सुनत बचन बसुदेव कै, नंद संग सभ गोप।


       बैठि बैलगाड़ी सभें,गोकुल गे बिनु कोप।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


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