पाँचवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-4
कछु दिन बाद सौंपि ब्रज-भारा।
गाँव-गऊ गोपिहिं कहँ सारा।।
गए नंद जहँ मथुरा नगरी।
अरपन करन कंस -कर सगरी।।
नंद-आगमन सुनि बसुदेवा।
गए नंद जहँ आश्रय लेवा।।
लखतै बसू नंद भे ठाढ़ा।
बरनि न जाए प्रेम-प्रगाढ़ा।।
विह्वल तन-मन उरहिं लगावा।
मृतक सरीर प्रान जस पावा।।
करि आदर-स्वागत-सतकारा।
तुरतै दइ आसन बइठारा।।
रह न आस तुमहीं कोउ सुत कै।
पर अब पायो सुत निज मन कै।।
बहुतै भागि मिलन भय हमरा।
अद्भुत मिलन मोर अरु तुम्हरा।।
प्रेमी जन जग बिरलइ मिलहीं।
मिलहिं ज ते पुनि जन्महिं भवहीं।।
जे बन रहहिं सुजन सँग अबहीं।
बंधु-बांधव- गउहिं तुमहीं।।
किम बन उहहिं अहहिं परिपुरना।
घासहिं-लता-नीर अरु परना।।
अहहिं न पसु सभ कुसल-निरोगा।
मिलै घास किम तिनहिं सुजोगा।।
कहहु भ्रात रह कस सुत मोरा।
संग रोहिनी मातुहिं-छोरा ।।
लालन-पालन जसुमति करहीं।
माता-पिता तुमहिं सब अहहीं।।
जातें जगत सुजन सुख लहहीं।
धर्महिं-अर्थ-काम नर उहहीं।।
नंदयि कहे सुनहु बसुदेवा।
बहु सुत तोर कंस हरि लेवा।
रही एक कन्या तव अंता।
स्वर्गहिं गई उहउ तुरंता।।
सब जन सुख-दुख भागि सहारे।
निसि-दिन प्रानी उहहि निहारे।।
सुख-दुख कारन केवल भागी।
जानै जे न रहै अनुरागी ।।
दोहा-सुनहु भ्रात हे नंद तुम्ह,जाउ तुरत निज गाँव।
इहाँ होत उत्पात बड़,रुकउ न अब यहि ठाँव।।
सुनत बचन बसुदेव कै, नंद संग सभ गोप।
बैठि बैलगाड़ी सभें,गोकुल गे बिनु कोप।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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