तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-23
सुनु धरि ध्यान मोरि यह बाती।
नवधा भगति मोर मन भाती।।
प्रथम भगति संतन्ह सतसंगा।
दूजी बस मम कथा-प्रसंगा।।
तीजी गुरु-पद-सेवा मिलही।
चौथी निष्छल प्रभु-गुन गवही।।
पंचम मन धरि दृढ़ बिस्वासा।
मम करि भजन अवहि नर पासा।।
इंद्री-निग्रह,सील-बिरागहिं।
छठवीं भगति संत-अनुरागहिं।।
सतवीं लख जग मम सम रूपा।
मोंतें अधि गुन संत अनूपा।।
अठवीं भगति होय संतोषा।
हानि-लाभु बिनु गुन अरु दोषा।।
नवीं भगति हो कपट बिहीना।
सरल-सरस प्रभु मन-तल्लीना।।
जड़-चेतन अरु जग नर-नारी।
जदपि एक धरि बड़ मम प्यारी।।
सकल नवो गुन तव जग न्यारा।
तुमहिं भगति कै सुदृढ़ अधारा।।
दोहा-तब प्रभु सबरी तें कहहिं, मोंहि बतावउ आजु।
तुम्ह देखीं सीता कतहुँ,मोर होय यहि काजु।।
भिलनी तब प्रभु राम बताई।
पंपासर अब जाहु गोसाई।।
तहँ सुग्रीव कपिन्ह सँग रहई।
करहु मिताई तेहि सँग तहँई।।
जानहि सभ सुग्रीव कपीसा।
पंपासर-महि वही महीसा।।
जदपि प्रभू जानउ तुम्ह सबही।
कस पूछहु मों जे अनजनही।।
अस कहि सबरी जरि तन त्यागहि।
प्रभु-पद छूइ जोग के आगहि ।।
प्रभु-पद-महिमा जे नर गावै।
बिनु कुल-जाति अमर पद पावै।।
प्रभु-पद कै महिमा बड़ भारी।
दे असीष बिनु जाति-बिचारी।।
दोहा-जाति-पाँति अरु धरम कै, करहिं न तनिक बिचार।
प्रभु चाहहिं निरछल भगति,करहिं पतित-उद्धार।।
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आठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-3
पहिले कबहुँ रहा ई जनमा।
यही बरन बसुदेवहिं गृह मा।।
यहिंतें बासुदेव कहलाई।
तोर लला ई किसुन कन्हाई।।
बिबिध रूप अरु बिबिधइ नामा।
रहहि तोर सुत जग बलधामा।।
गऊ-गोप अरु तव हितकारी।
अहहि तोर सुत बड़ उपकारी।।
हे ब्रजराज,सुनहु इकबारा।
कोउ नृप रहा न अवनि-अधारा।।
लूट-पाट जग रह उतपाता।
धरम-करम रह सुजन-निपाता।।
रही कराहत महि अघभारा।
जनम लेइ तव सुतय उबारा।।
जे जन करहिं प्रेम तव सुतहीं।
बड़ भागी ते नरहिं कहहहीं।।
बिष्नु-सरन जस अजितहिं देवा।
अजित सरन जे किसुनहिं लेवा।।
तव सुत नंद,नरायन-रूपा।
सुंदर-समृद्ध गुनहिं अनूपा।।
रच्छा करहु तुमहिं यहि सुत कै।
सावधान अरु ततपर रहि कै।।
नंदहिं कह अस गरगाचारा।
निज आश्रम पहँ तुरत पधारा।।
पाइ क सुतन्ह कृष्न-बलदाऊ।
नंद-हृदय-मन गवा अघाऊ।।
सोरठा-कहे मुनी सुकदेव, सुनहु परिच्छित थीर मन।
कृष्न औरु बलदेव,चलत बकैयाँ खेलहीं।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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