डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-18


 


कपटी-कुटिल-दुष्ट सम बानी।


सुनहु जती तव बचन सुहानी।।


     लछिमन-रेख लाँघि जब सीता।


     बाहर आईं कंप सभीता।।


तब रावन निज रूप देखावा।


कहि रावन निज नाम बतावा।।


    धरि धीरज तब सीता कहहीं।


     ठाढ़ि रहहु खल रघुबर अवहीं।।


जस कोउ ससक सेरनी चाहहि।


बिनु न्योते निज काल बोलावहि।।


    तस तव काल अवहि तव पाछे।


    असुभ होय तव नहिं कछु आछे।।


सुनि अस बाति क्रुद्ध दसकंधर।


मन महँ बंदि चरन सीता धर।।


    रथ बिठाइ सीतहिं अति आतुर।


    चला गगन-पथ हाँकि भयातुर।


सुमिरि नाम प्रभु बिलपहिं सीता।


जाहिं दुष्ट सँग दुखी- सभीता।।


      का कारन कि प्रभु नहिं आयो।


      परम कृपालु मोंहि बिसरायो।।


लछिमन तोर दोषु कछु नाहीं।


फल निज करम आजु मैं पाहीं।।


दोहा-बिलपत सिय रावन-रथहिं,नभ-पथ अस चलि जाँय।


        जस मलेछ सँग बिकल रह,परबस कपिला गाय ।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


 


*******************************


सातवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


उतरहिं जगत बिबिध अवतारा।


लीला मधुर करहिं संसारा।।


    बिषय-बासना-तृष्ना भागै।


    सुमिरत नाम चेतना जागै।।


मोंहि बतावउ औरउ लीला।


कहे परिच्छित हे मुनि सीला।।


    सुनत परिच्छित कै अस बचना।


    कहन लगी लीला मुनि-रसना।।


एकबेरि सभ मिलि ब्रजबासी।


उत्सव रहे मनाइ उलासी।।


     करवट-बदल-कृष्न-अभिषेका।


     जनम-नखत अपि तरह अनेका।।


नाच-गान अरु उत्सव माहीं।


भवा कृष्न अभिषेक उछाहीं।।


      मंत्रोचार करत तहँ द्विजहीं।


      दिए असीष कृष्न कहँ सबहीं।।


ब्रह्मन-पूजन बिधिवत माता।


जसुमति किन्ह जस द्विजहिं सुहाता।।


    अन्न-बस्त्र-माला अरु गाई।


    दानहिं दीन्ह जसोदा माई।।


कृष्न लला कहँ तब नहलावा।


सयन हेतु तहँ पलँग सुलावा।।


     कछुक देरि पे किसुन कन्हाई।


     खोले लोचन लेत जम्हाई।।


लागे करन रुदन बहु जोरा।


स्तन-पान हेतु जसु-छोरा।।


     रह बहु ब्यस्त जसोदा मैया।


     सुनि नहिं पाईं रुदन कन्हैया।।


प्रभु रहँ सोवत छकड़ा नीचे।


रोवत-उछरत पाँव उलीचे।।


     छुवतै लाल-नरम पद प्रभु कै।


     भुइँ गिरि लढ़िया पड़ी उलटि कै।।


दूध-दही भरि मटका तापर।


टूटि-फाटि सभ गे छितराकर।।


     पहिया-धुरी व टूटा जूआ।


     निन्ह पाँव जब लढ़िया छूआ।।


करवट-बदल क उत्सव माहीं।


जसुमति-नंद-रोहिनी ताहीं।।


    गोपी-गोप सकल ब्रजबासी।


    कहन लगे सभ हियहिं हुलासी।।


अस कस भयो कि उलटी लढ़िया।


जनु कछु काम होय अब बढ़िया।।


    तहँ खेलत बालक सभ कहई।


    उछरत पाँव कृष्न अस करई।।


बालक-बाति न हो बिस्वासा।


भए मुक्त सभ कारन-आसा।।


सोरठा-होय ग्रहन कै कोप,अस बिचार करि जसुमती।


          लेइ द्विजहिं अरु गोप,पाठ कराईं सांति कै।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...