अष्टावक्र गीता-11
माया कल्पित विश्व यह,माने प्रज्ञावान।
विगत कामना को कहाँ,डर न, मृत्यु ध्रुव जान।।
रहे भले नैराश्य में,फिर भी नहीं उदास।
महा आत्मा-अनिछ जग,किससे तुले,न आस।।
बिना किसी अस्तित्व के,दृश्यमान जग मान।
त्याज्य और अत्याज्य को,लखे न प्रज्ञावान।।
सुख अथवा दुख उभय अपि,दोनों रहते एक।
अनासक्त नर के लिए,यद्यपि लोभ अनेक।।
बुद्धिमान को तो लगे,यह जग-लीला खेल।
कभी न,अष्टावक्र कह,बुधजन-मोहित-मेल।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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