मेरे जीवन के उपवन के,
सूखे पुष्प शीघ्र खिल जाते।
पूनम की संध्या-वेला में-
सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।
उमस-ताप से व्याकुल धरती,
को भी अद्भुत सुख अति मिलता।
उछल-उछल कर नदियाँ बहतीं,
लखकर प्रेमी हृदय मचलता।
पावस बिना गगन में घिर-घिर-
अमृत जल बादल बरसाते।
सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।
तेरे गीत सुहाने सुनकर,
पशु-पंछी अति हर्षित होते।
सुनकर तेरे मधुर बोल को,
जगते जो भी दिल हैं सोते।
फँसे कष्ट में व्यथित-थकित मन-
औषधि मीठी पा मुस्काते।
सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।
मस्त हवा भी लोरी गाती,
सन-सन बहती जो गलियों में।
लाती गज़ब निखार चमन में,
भरकर गंध मृदुल कलियों में।
भन-भन भ्रमर-गीत मन-भावन-
को सुन प्रेमी-मन लहराते।
सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।
प्रकृति नाचने लगती सुनकर,
तेरा गान विमल अति पावन।
बिना सुने ज्यों कहीं दूर से,
स्वर ढोलक का लगे सुहावन।
बिना सुने अनुभूति गीत से-
विरही-हृदय परम सुख पाते।
सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।
हे,मेरे मनमीत सुरीले,
सुन लो मेरे दिल की पुकार।
देव-तुल्य यदि स्वर है तेरा,
मधुर मेरी वीणा-झनकार।
वीणा का मधुरिम स्वर सुनकर-
व्यथित-विकल मन अति हर्षाते।
पूनम की संध्या-वेला में,सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।
©डॉ हरि नाथ मिश्र
9919446372
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