छठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-3
रही पूतना ब्रज-सिसु-घालक।
यहिं तें बधे कृष्न जग-पालक।।
कृष्न-सखा अरु भगत सिसुहिं सब।
बधे पूतना यहिं तें प्रभु तब ।।
कृष्न-पिता अरु माता सकला।
देव-दनुज अरु अबला-सबला।।
पाइ क कृपा कृष्न भगवाना।
मुक्त सबहिं जग आना-जाना।।
मरन पूतना अचरज भयऊ।
सभ सुनि जहँ-तहँ ठाढ़हि रहऊ।।
परत पूतना भूइँ सरीरा।
बड़-बड़ तरुवर गिरे गँभीरा।।
जे छे कोस भूमि पे रहऊ।
ते सभ तासु सरीरहिं दबऊ।।
हल समान मुख-मंडल तासू।
दाढ़-बाल सभ लगै डरासू।।
गहिर नथुन गिरि-गुहा समाना।
बड़ गिरि-खंडहिं स्तन जाना।।
अंध कूप इव गहरे लोचन।
नदी-कूल नितम्भ सुख-मोचन।।
जाँघ-भुजा अरु तासू लाता।
पुल इव कोऊ सरित लखाता।।
उदर पूतना सुष्क सरोवर।
लखहिं सभें जन डरत बरोबर।।
उछरत-कूदत पीए स्तन।
धन्य नाथ तव लीला वहि छन।।
पूरन कीन्ह तासु अभिलाषा।
बलि-कन्या रत्नावलि-आसा।।
एक बेरि बामन-अवतारा।
बलि-गृह नाथहिं जबहिं पधारा।।
लखतै प्रभु कै बामन-रूपा।
तब तनया रत्नावलि भूपा।।
निज उर धारि भाव बतसल्या।
भइ जननी इव मातु कुसिल्या।।
चाहेसि स्तन-पान कराना।
तासु बिचार प्रभू पहिचाना।।
लइ द्वापर कृष्णहिं अवतारा।
करि पय-पान पूतना तारा।।
सोरठा-सभ गोपिहिं तहँ धाइ, किसुनहिं धरि निज गोद मा।
इत-उत भागत जाइ,जनु डरपैं सिसु कृष्न तहँ।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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