डॉ0 हरि नाथ मिश्र

छठवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-3


 


रही पूतना ब्रज-सिसु-घालक।


यहिं तें बधे कृष्न जग-पालक।।


     कृष्न-सखा अरु भगत सिसुहिं सब।


     बधे पूतना यहिं तें प्रभु तब ।।


कृष्न-पिता अरु माता सकला।


देव-दनुज अरु अबला-सबला।।


     पाइ क कृपा कृष्न भगवाना।


     मुक्त सबहिं जग आना-जाना।।


मरन पूतना अचरज भयऊ।


सभ सुनि जहँ-तहँ ठाढ़हि रहऊ।।


   परत पूतना भूइँ सरीरा।


    बड़-बड़ तरुवर गिरे गँभीरा।।


जे छे कोस भूमि पे रहऊ।


ते सभ तासु सरीरहिं दबऊ।।


    हल समान मुख-मंडल तासू।


     दाढ़-बाल सभ लगै डरासू।।


गहिर नथुन गिरि-गुहा समाना।


बड़ गिरि-खंडहिं स्तन जाना।।


     अंध कूप इव गहरे लोचन।


     नदी-कूल नितम्भ सुख-मोचन।।


जाँघ-भुजा अरु तासू लाता।


पुल इव कोऊ सरित लखाता।।


     उदर पूतना सुष्क सरोवर।


      लखहिं सभें जन डरत बरोबर।।


उछरत-कूदत पीए स्तन।


धन्य नाथ तव लीला वहि छन।।


    पूरन कीन्ह तासु अभिलाषा।


    बलि-कन्या रत्नावलि-आसा।।


एक बेरि बामन-अवतारा।


बलि-गृह नाथहिं जबहिं पधारा।।


    लखतै प्रभु कै बामन-रूपा।


    तब तनया रत्नावलि भूपा।।


निज उर धारि भाव बतसल्या।


भइ जननी इव मातु कुसिल्या।।


    चाहेसि स्तन-पान कराना।


   तासु बिचार प्रभू पहिचाना।।


लइ द्वापर कृष्णहिं अवतारा।


करि पय-पान पूतना तारा।।


सोरठा-सभ गोपिहिं तहँ धाइ, किसुनहिं धरि निज गोद मा।


           इत-उत भागत जाइ,जनु डरपैं सिसु कृष्न तहँ।।


                              डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                               9919446372


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