अष्टावक्र गीता-12
जग झूठा, तुम शुद्ध हो,करो ब्रह्म सँग योग।
बने न,अष्टावक्र कह,किसी से तव संयोग।।
विश्व-मूल है आत्मा,जैसे बुदबुद सिंधु।
करो ब्रह्म सँग मेल तुम,प्राप्त ज्ञान यह बंधु।।
नहीं विश्व वह जो दिखे,जैसे रज्जु न सर्प।
रखो योग तुम ब्रह्म से,होत बोध तज दर्प।।
सुख-दुख,जीवन-मृत्यु सम,आशा अरु नैराश्य।
रखकर भाव समान तुम,पाओ ब्रह्म उपास्य।।
© डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446373
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