डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तीसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-7


 


अस कहि कृष्न,कहहिं सुकदेवा।


रूप सिसू कै तुरतयि लेवा।।


    वहि पल जनीं जसोदा तनया।


     देवकि-जसुमति जननी उभया।।


नंद-नंदिनी जोगहिं माया।


देवकि सुतहिं कृष्न कै छाया।।


    बेड़ी-मुक्त भए बसुदेवा।


    परमइ कृपा कृष्न कै लेवा।


माया-बल,प्रभु-जोग-प्रतापा।


थमा बंदिगृह-आपा-धापा।।


    निज सुत लइ निकसे बसुदेवा।


    भे जब सभ अचेत जे सेवा।।


बंदीगृह कै टूटा ताला।


टुटी जँजीरहिं नाथ कृपाला।।


     लेतइ जनम कृष्न उजियारा।


     छटै उदित रबि जस अँधियारा।।


बरसन लगे मगहिं जब बादर।


निज फन तानि सेष जस छातर।।


    चलन लगे बसुदेवहिं पाछे।


     प्रभुहिं बचावत आछे-आछे।।


जल जमुना कै बाढ़न लगा।


प्रभु प्रति प्रेम पाइ अनुरागा।।


    सकल तरंगहिं जमुना-जल कै।


    प्रभु-पद चाहहिं छुवन उछरि कै।।


छूइ चरन पुनि भईं सिथिल वै।


पार भए बसुदेव अभय ह्वै।।


     राम हेतु जस सागर-नीरा।


     वैसै भे जमुना-जल थीरा।।


दोहा-कृष्णसिसुहिं बसुदेव लइ,सिंधु-जमुन-भव- पार।


         भव-बंधन-बन्दीगृहहिं,मुक्ती प्रभु-आधार।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र।


                      9919446372


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