डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीराचरितबखान)-8


 


कहत-सुनत बिराग-गुन-ग्याना।


बीते कछु दिन ताहि ठिकाना।।


     रावन-भगिनी नाम सुपुनखा।


     बिकल मना भइ आ तिन्ह निरखा।।


आइ क धाइ तुरत करि माया।


रुचिर रूप धरि सुंदर काया।।


     निकट जाइ प्रभु रामहिं पाहीं।


    कही राम हम तुमहीं चाहीं।।


होंहि बिकल चित जग सभ नारी।


सुंदर पुरुष निहारि-निहारी ।।


     जस रबि-तापहिं पिघलै रबि-मनि।


     सुघर देखि नर हँकरै त्रिय-मन ।।


कहहि राम तें रावन-बहिनी।


तुम्ह सम पुरुष न अब तक पवनी।।


     तोर-मोर अस जोड़ बिधाता।


     जोड़े भल संजोगहिं नाता ।।


तब प्रभु राम चितइ सिय ओरा।


कहहिं कुवाँर भ्रात ऊ मोरा।।


    सुनत बचन प्रभु रावन-बहिनी।


     लहरत लखन निकट गइ अहिनी।।


सुमुखी,सुनहु मोर इक बाता।


मों सँग तोर बियाह न भाता।।


     लखन कहे कोमल मृदु बानी।


     सुंदरि सुनु,इक बात बतानी।।


हम त अहहिं दास प्रभु स्वामी।


जस बिहीन मैं, प्रभु बड़ नामी।।


     मम-तव जोड़ी जग नहिं भावै।


     स्वामी रहत दास कस पावै।।


सुख सेवक चाहहि निज हेतू।


ब्यसनी चाह कुबेर-निकेतू।।


     चाहे भिच्छु मान-सम्माना।


     लोभी चाहे जस जग पाना।।


धर्मइ-अर्थ-मोच्छ अरु कामा।


पुरुष गुमानी कै सतधामा।।


     सुभ गति नित चाहे ब्यभिचारी।


      चाहे सिकता तेल निकारी।।


सुनि मुख लखन गूढ़ अस बचना।


कीन्ह सुपुनखा प्रभु पहँ गमना।।


    पुनि प्रभु ताहि लखन पहँ पठऊ।


     मरम बचन तब लछिमन कहऊ।।


होइ निर्लज्ज तोरि जे तृनुहीं।


तुम्ह सम नारि जगत ते बियहीं।।


     तब भइ कुपित तुरत सूपुनखा।


     धरि निज रूप डेरवनहिं निरखा।।


लागहि कोउ खिसियान बिलारी।


खुरुचे खंभा बिनू बिचारी।।


    भइ आतुर सीतहिं लखि रामा


     सैनन कह लछिमन कुरु कामा।।


दोहा-समुझि सनेसहिं लखन तहँ,काटे नाकहिं-कान।


         नाकइ-कान बिहीन तब,भागी करि बिष-पान।।


         नाक-कान तिसु काटि के,राम-लखन अस कीन्ह।


         मौन निमंत्रन रावनहिं,समर करन कै दीन्ह ।।


                      डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


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