डॉ0 हरि नाथ मिश्र

जलाओ चराग़ 


जलाओ चराग़ मिल के सभी,


अभी भी यहाँ अँधेरा है।


हर तरफ़-हर दिशा-हर गली में-


दुश्मने रौशनी का बसेरा है।।


     बारो भले तेल-बाती का दीया,


     मग़र ध्यान देना ज़रूरी है।


     मन की इस गंदी बस्ती में-


 तनिक भी नहीं उजेरा है।।


                 दुश्मने रौशनी.........।।


सभ्यता के लबादे को ओढ़े,


फ़ख्र से कहते हमीं श्रेष्ठ कृति हैं।


खेद है ये मग़र हम न समझे-


अपने अंदर छुपा इक सवेरा है।।


              दुश्मने रौशनी...........।।


अपने अंदर का दीपक जलाओ,


जिसकी आभा से छँटता अँधेरा।


दीप इंसानियत का ही जलने से-


ग़ायब होता तुरत तम घनेरा है।।


             दुश्मने रौशनी..........।।


हम जलाते हैं रावण को नाहक,


अपने अंदर का रावण जलाओ।


ताकि जल के तुरत खाक़ होवे-


जो अंदर अमानुष का डेरा है।।


           दुश्मने रौशनी...........।।


ज्ञान का दीप मिल कर जलाओ,


जैसे दीये की लौ जलती रहती।


तम बेअदबी का झट-पट छटेगा-


जो अब तक धरा को भी घेरा है।।


          दुश्मने रौशनी............।।


धूमिल न हो दीप्ति इल्मो-हुनर,


प्रेम की तेल-बाती जलाते रहो।


फिर से होगा कभी भी न मुमकिन-


जो लगता गुनाहों का फेरा है।।


       दुश्मने रौशनी का बसेरा है।।


              © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


               9919446372


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