तीसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-5
सबहिं नाथ तव लीला अहहीं।
निमिष-बरस व काल जे रहहीं।।
तुमहिं सक्ति-कल्यान-निधाना।
तुम्हरे सरन नाथ मैं आना।।
जीवहि मृत्युग्रस्त रह लोका।
मृत्यु-ब्याल भयभीत ससोका।
भरमइ इत-उत बहुतै भ्रमिता।
अटका-भटका बिनु थल सहिता।।
बड़े भागि प्रभु पदारबिंदा।
मिली सरन यहिं नाथ गुबिंदा।।
सुत्तइ जिव अब सुखहिं असोका।
भगी मृत्यु तजि जगहिं ससोका।।
तुमहिं त नाथ भगत-भय-हारी।
करहु सुरच्छा बाँकबिहारी।।
दुष्ट कंस भयभीता सबहीं।
सबहिं क करउ अभीता तुमहीं।।
नाथ चतुर्भुज दिब्यहि रूपा।
सबहिं न प्रकटेऊ रूप अनूपा।।
दोऊ कर जोरे मैं कहहूँ।
पापी कंस न जानै तुमहूँ।।
धीरज भवा मोंहि तव छूवन।
रच्छ माम तुम्ह हे मधुसूदन।।
पर डरपहुँ मैं कंसहिं अबहीं।
तव अवतार न जानै जगहीं।।
रूप अलौकिक अद्भुत मोहै।
पंकज-गदा-संख-चक सोहै।।
सकै न जानि चतुर्भुज रूपा।
कंस दुष्ट-खल-करम-कुरूपा।।
रखहु छिपा ई रूप आपनो।
सुनो जगात्मन मोर भाषनो।।
दोहा-कहहिं देवकी मातु पुनि,बहुत कृपा प्रभु तोर।
पुरुष तुमहिं परमातमा,आयो गर्भहिं मोर।।
भई धन्य ई कोंख मम,धारि तुमहिं हे नाथ।
अद्भुत लीला तव प्रभू, नमहुँ नवाई माथ।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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