डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तीसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-5


 


सबहिं नाथ तव लीला अहहीं।


निमिष-बरस व काल जे रहहीं।।


     तुमहिं सक्ति-कल्यान-निधाना।


     तुम्हरे सरन नाथ मैं आना।।


जीवहि मृत्युग्रस्त रह लोका।


मृत्यु-ब्याल भयभीत ससोका।


     भरमइ इत-उत बहुतै भ्रमिता।


     अटका-भटका बिनु थल सहिता।।


बड़े भागि प्रभु पदारबिंदा।


मिली सरन यहिं नाथ गुबिंदा।।


   सुत्तइ जिव अब सुखहिं असोका।


   भगी मृत्यु तजि जगहिं ससोका।।


तुमहिं त नाथ भगत-भय-हारी।


करहु सुरच्छा बाँकबिहारी।।


    दुष्ट कंस भयभीता सबहीं।


    सबहिं क करउ अभीता तुमहीं।।


नाथ चतुर्भुज दिब्यहि रूपा।


सबहिं न प्रकटेऊ रूप अनूपा।।


    दोऊ कर जोरे मैं कहहूँ।


     पापी कंस न जानै तुमहूँ।।


धीरज भवा मोंहि तव छूवन।


रच्छ माम तुम्ह हे मधुसूदन।।


   पर डरपहुँ मैं कंसहिं अबहीं।


   तव अवतार न जानै जगहीं।।


रूप अलौकिक अद्भुत मोहै।


पंकज-गदा-संख-चक सोहै।।


     सकै न जानि चतुर्भुज रूपा।


     कंस दुष्ट-खल-करम-कुरूपा।।


रखहु छिपा ई रूप आपनो।


सुनो जगात्मन मोर भाषनो।।


दोहा-कहहिं देवकी मातु पुनि,बहुत कृपा प्रभु तोर।


        पुरुष तुमहिं परमातमा,आयो गर्भहिं मोर।।


        भई धन्य ई कोंख मम,धारि तुमहिं हे नाथ।


         अद्भुत लीला तव प्रभू, नमहुँ नवाई माथ।।


                         डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


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