अष्टावक्र गीता-13
महासिंधु सम मैं वृहद,यह जग उर्मि समान।
त्याग-ग्रहण बिन मैं रहूँ,एकरूप सँग ज्ञान।।
चाँदी रहती सीप में,ज्यों मुझमें संसार।
रहूँ ज्ञान सँग मान मैं, त्याग-ग्रहण बिन सार।।
सब प्राणी मुझमें रहें,सब में मेरा वास।
त्याग-ग्रहण बिन मैं रहूँ,कर यह ज्ञानाभास।।
© डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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