गीत (16/16)
आओ पास हमारे बैठो,
अपलक तुम्हें निहारूँ, प्रियतम।
बहुत दिनों से थे तुम ओझल-
आओ पाँव पखारूँ, प्रियतम।।
जब तक थे तुम साथ हमारे,
मन-बगिया में हरियाली थी।
ले सुगंध साँसों की तेरी,
बही हवा जो मतवाली थी।
उलझे-उलझे केश तुम्हारे-
आओ केश सवाँरूँ,प्रियतम।
अपलक तुम्हें निहारूँ,प्रियतम।।
बहुत दिनों के बाद मिले हो,
अब जाने का नाम न लेना।
रह कर साथ सदा अब मेरे,
डगमग जीवन-नैया खेना।
तेरी अनुपम-अद्भुत छवि को-
आओ, हृद में धारूँ, प्रियतम।
अपलक तुम्हें निहारूँ ,प्रियतम।।
तुम दीपक मैं बाती साजन,
प्रेम-तेल पा यह दिया जले।
प्रेम-ज्योति के उजियारे में,
जीवन-तरुवर की डाल फले।
भर लो अपनी अब बाहों में-
तन-मन तुझपर वारूँ,प्रियतम।
अपलक तुम्हें निहारूँ,प्रियतम।।
नहीं साथ थे जब तुम मेरे,
मैं थी तकती राहें तेरी।
बड़े भाग्य से आज मिले हो।
बंद हुईं अब आहें मेरी।
तुम्हीं देवता मन-मंदिर के-
तुमको सदा पुकारूँ,प्रियतम।
अपलक तुम्हें निहारूँ,प्रियतम।।
तुम समीप जो बैठे मेरे,
देखो,चंदा इठलाता है।
बोले पपिहा दूर कहीं से,
पी-पी उसका अब भाता है।
अब तो नैन मिलाकर तुमसे-
नित-नित प्रेम निखारूँ,प्रियतम।
अपलक तुम्हें निहारूँ,प्रियतम।।
मन कहता है कहीं दूर जा,
नीले गगन की छाँवों तले।
चंचल नदी-किनारे बैठें,
अति मंद पवन भी जहाँ चले।
तुम्हें बिठाकर निज गोदी में-
हिकभर तुम्हें दुलारूँ, प्रियतम।
अपलक तुम्हें निहारूँ,प्रियतम।।
© डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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