डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चौथा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-4


 


गया कंस तुरतै निज गेहा।


मन प्रसन्न अरु पुलकित देहा।।


    निसा-बिगत बुलाइ निज सचिवहिं।


   तिनहिं बताया माया-कथनहिं।।


मंत्री तासु न नीतिहिं निपुना।


असुर-सुभाउ, बोध तिन्ह किछु ना।।


    रखहिं सुरन्ह सँग रिपु कै भावा।


    अस मिलि सभ कंसहिं समुझावा।।


भोजराज! तव आयसु मिलतइ।


लघु-बड़ गाँव-नगर महँ तुरतइ।।


     हम सभ जाइ अहीरन्ह बस्ती।


     जे सिसु लिए जनम निज नियती।।


पकरि क तिनहिं बधहुँ तहँ जाई।


अस करनी महँ नाहिं बुराई।।


     नहिं करि सकहिं लराई देवा।


     समर-भीरु ते का करि लेवा।।


तव धनु कै सुनतै टंकारा।


भागहिं सभें बिनू ललकारा।।


    लखतै तव सायक-संधाना।


    इत-उत भागहिं देवहिं नाना।।


केचन तजहिं भूइँ निज सस्त्रा।


केचन खोलि चोटि-कछ-बस्त्रा।।


    आवहिं तुम्हरे सरनहिं नाथा।


     कर जोरे नवाय निज माथा।।


कहहिं नाथ भयभीतहिं हम सब।


रच्छा करहु नाथ तुमहीं अब।।


     मारउ तू नहिं तिनहीं नाथा।


     सस्त्र-बिहीन रथहिं नहिं साथा।।


दोहा-जुधि तजि जे भागै तुरत,मारहु तिन्ह नहिं नाथ।


          तुमहिं पुरोधा पुरुष हौ,कहा सचिव नइ माथ।।


                      डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


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