चौथा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-4
गया कंस तुरतै निज गेहा।
मन प्रसन्न अरु पुलकित देहा।।
निसा-बिगत बुलाइ निज सचिवहिं।
तिनहिं बताया माया-कथनहिं।।
मंत्री तासु न नीतिहिं निपुना।
असुर-सुभाउ, बोध तिन्ह किछु ना।।
रखहिं सुरन्ह सँग रिपु कै भावा।
अस मिलि सभ कंसहिं समुझावा।।
भोजराज! तव आयसु मिलतइ।
लघु-बड़ गाँव-नगर महँ तुरतइ।।
हम सभ जाइ अहीरन्ह बस्ती।
जे सिसु लिए जनम निज नियती।।
पकरि क तिनहिं बधहुँ तहँ जाई।
अस करनी महँ नाहिं बुराई।।
नहिं करि सकहिं लराई देवा।
समर-भीरु ते का करि लेवा।।
तव धनु कै सुनतै टंकारा।
भागहिं सभें बिनू ललकारा।।
लखतै तव सायक-संधाना।
इत-उत भागहिं देवहिं नाना।।
केचन तजहिं भूइँ निज सस्त्रा।
केचन खोलि चोटि-कछ-बस्त्रा।।
आवहिं तुम्हरे सरनहिं नाथा।
कर जोरे नवाय निज माथा।।
कहहिं नाथ भयभीतहिं हम सब।
रच्छा करहु नाथ तुमहीं अब।।
मारउ तू नहिं तिनहीं नाथा।
सस्त्र-बिहीन रथहिं नहिं साथा।।
दोहा-जुधि तजि जे भागै तुरत,मारहु तिन्ह नहिं नाथ।
तुमहिं पुरोधा पुरुष हौ,कहा सचिव नइ माथ।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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