डॉ0 हरि नाथ मिश्र

द्वितीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-41


 


करहिं राम कौसिकहीं प्रनामा।


संग बसिष्ठ जाबालिहिं-बामा।।


    तब प्रनाम करि मातु, जनकहीं।


    अवधमनी भरतहिं अस कहहीं।।


अब तव कान्हें अवध-समाजू।


सभ सँग लेइ करहु तहँ राजू।।


     करु निबाह निज कुल-मरजादा।


      उच्च बिचार सँग जीवन सादा।।


कुल पुरुखन कै रीति निभाऊ।


धरम-करम तू जानेउ राऊ।।


    पसु-पंछिन्ह सुख जे नृप देवहिं।


     ईस-प्रसाद लपकि ते लेवहिं।।


हरित सस्य-बन-उपबन-बागा।


पसु-बिहार-जल-सरित-तड़ागा।


    जे नृप-राज रहहिं सभ पुरना।


    तासु प्रजा जग रहहि प्रसन्ना।।


प्रजा-तोष-सुख धयि हिय राजा।


करै राज सुख मिलै समाजा।।


    बरन-भेद अरु जाति-कुजाती।


    ऊँच-नीच,मम-तव केहु भाँती।।


सोभा कबहुँ नहीं कोउ नृप कै।


कस सोभा बिनु मुक्ता सृप कै।।


    सबहिं लेइ अब लवटउ भ्राता।


    अवधराज सूना नहिं भाता।।


लवटउ अबहिं बिनू मन भारी।


करउ राज अरु प्रजा सुखारी।।


  एहि तें पितु-आतम सुख लहहीं।


   देवन्ह अपि पितु सँग सुख पवहीं।।


दोहा-सुनि के प्रभु कै बचन अस,सभ भे पुलकित गात।


        प्रमुदित ऋषि-मुनि सँग सुरन्ह,करैं सुमन-बरसात।।


                  डॉ0हरि नाथ मिश्र


                   9919446372


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