चौथा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1
सोरठा-पुनि कह मुनि सुकदेव,सुनहु परिच्छित धीर धरि।
जब लवटे बसुदेव, भवा कपाटहिं बंद सभ।।
सिसू-रुदन सुनतै सभ जागे।
कंसहिं पास गए सभ भागे।।
देवकि-गरभ सिसू इक जाता।
कहे कंस तें सभ यहि बाता।।
पाइ खबर अस धावत कंसा।
गे प्रसूति-गृह ऐंठत बिहँसा।।
लड़खड़ात पगु अरुझे केसा।
कुपित-बिकल मन रहा नरेसा।।
काल-आगमन अबकी बारा।
सोचत रहा करब संहारा।।
कंसहिं लखि कह देवकि माता।
पुत्र-बधुहिं सम ई तव भ्राता।
कन्या-बध अरु स्त्री जाती।
नृप जदि करै न बाति सुहाती।।
सुनहु भ्रात ई बाति हमारी।
कहहुँ तमहिं तें सोचि-बिचारी।।
तेजवंत मम बहु सुत मारे।
तुम्हतें बचन रहे हम हारे।।
अहहुँ लघू भगिनी मैं तोरी।
बिनती करउँ न छोरउ छोरी।।
पापी रहा कंस बड़ भारी।
सुना न बिनती अत्याचारी।।
झट-पट तुरतहिं लइकी छीना।
किया देवकिहिं सुता बिहीना।।
दोहा-निष्ठुर-निर्मम कंस बहु,सुना न देवकि-बात।
दियो फेंकि कन्या गगन,बरनन कइ नहिं जात।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919र46372
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