जैसी करनी वैसी भरनी
जैसी करनी वैसी भरनी,अब तू क्यों पछताए रे,
पागल बन के गली -गली में,खुद को क्यों हँसाये रे??
धन के मद में भूल गए तू,रिश्ते सारे अपनों के,
तू मूरख इंसान न जाने क्या दस्तूर फरिश्तों के?
अपने हाथों अपने ही घर में,काहें आग लगाए रे-
जैसी करनी वैसी भरनी.........।।
धरम-करम को ताख पे रख के,झूठे नाम कमाए तू,
बने रहे इंसान मगर शैतान को दिल में छुपाए तू।
काम बिगाड़ के जग में अपना,दर-दर ठोकर खाए रे-
जैसी करनी वैसी भरनी............।।
कल तक थी जो शोहरत तेरी,आज मिली वो पानी में,
नमो-निशाँ भी मिटा सब तेरा,अब क्या तेरी कहानी में।
बीज जो बोया नफ़रत का तो,प्यार कहाँ से पाए रे-
जैसी करनी वैसी भरनी...........।।
तुम्ही तो हो कारण ऐ मूरख, अपने सारे कष्टों के,
भगवान नहीं बच पाए यहाँ, तिकड़म से इन दुष्टों के।
अपने कर्मों से ही तुमने,अपीने चैन गवाएँ रे-
जैसी करनी वैसी भरनी,अब तू क्यों पछताए रे??
© डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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