डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पाँचवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-2


 


ग्वाल-बाल अरु सभ ब्रजबासी।


पहिरि क भूषन-बसन उलासी।।


     निज कर लिए भेंट-उपहारा।


     आए सबजन नंद-दुवारा।।


भईं मगन गोपी सभ ब्रज कै।


सुनि के जनम पुत्र जसुमति कै।।


    सुरुचि बसन-भूषन ते धारी।


     अंजन लोचन डारि सवाँरी।।


कमल-मुखी-सुमुखी सभ नारी।


पंकज केसन कुमकुम धारी।।


     भेंट-समग्री लइ-लइ आई।


     ललन संग जहँ जसुमति माई।।


सुघर-गठित नितम्भ गोपिन्ह कै।


हिलत पयोधर उनहिं सभें कै।।


     धावत रहँ जब मोहहिं लोंगा।


      महि पै अस बिरलै संजोगा।।


झिलमिलाय मनि- कुंडल काना।


कंचन-हार-हुमेलहिं नाना ।।


     बसन पहिरि बहु रंग-बिरंगी।


     पुष्प-गुच्छ चोटिन्ह महँ ढंगी।।


कंगन पहिनि जड़ाऊ दमकैं।


कानन्ह कुंडल झलकैं-चमकैं।।


     देहिं असिष बालक नवजाता।


     कहि-कहि रच्छा करहु बिधाता।।


करहु प्रभू चिरजीवी यहिं का।


रहहि सुखी-स्वस्थ ई लइका।।


दोहा-मगन होइ सभ गोपिहीं,गावैं मंगल-गान।


        हरदी-तेलइ छिड़िकि के,चाहहिं तहँ कल्यान।।


                          डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                             9919446372


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