डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चौथा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-3


 


जब तक नर जानै नहिं अंतर।


सुख-दुख सदा रहहि अभ्यंतर।।


    जनम-मरन यहि कारन भवई।


    होतै ग्यान मुक्ति पुनि मिलई।।


'बध्य'-'बधिक' सम मन अग्याना।


देइ सतत दुख जग बिधि नाना।।


     मैं अब 'मरब'व'मारब'तुमहीं।


     अस बिचार अग्यानहिं अहहीं।।


'छमहु मोंहि तुम्ह' साधु-सुभाऊ।


दीनन्ह रच्छक सभ मन भाऊ।।


   अस कहि कंस पकरि तिन्ह चरना।


   रोवत रहा जाइ नहिं बरना ।।


तिनहिं मुक्त करि बंदी-गृह तें।


लगा दिखावन प्रेम हृदय तें।।


   देवकि लखि कंसइ पछितावा।


   दीन्ह छमा तेहिं प्रेम सुभावा।।


भूलि क तासु सकल अपराधू।


कह बसुदेवहिं नेह अगाधू।।


    तोर बचन हे कंस मनस्वी।


    परम उचित अस कहहिं तपस्वी।


जब 'मैं' भाव जीव महँ आवै।


जीवहि ग्यान-भ्रष्ट कहलावै।।


   'तव'-'मम'-भेद तुरत उपजावै।


   'अपुन'-'पराया'-पाठ पढ़ावै।।


उपजै सोक-लोभ-मद-द्वेषा।


भय उर बसै साथ लइ क्लेसा।।


   जीव न समुझइ भगवत माया।


   रहइ सदा माया-भरमाया ।।


सोरठा-कहे मुनी सुकदेव, सुनहु परिच्छित ध्यान धरि।


           देवकि अरु बसुदेव, छमा कीन्ह कंसहिं तुरत।।


                         डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


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