चौथा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-3
जब तक नर जानै नहिं अंतर।
सुख-दुख सदा रहहि अभ्यंतर।।
जनम-मरन यहि कारन भवई।
होतै ग्यान मुक्ति पुनि मिलई।।
'बध्य'-'बधिक' सम मन अग्याना।
देइ सतत दुख जग बिधि नाना।।
मैं अब 'मरब'व'मारब'तुमहीं।
अस बिचार अग्यानहिं अहहीं।।
'छमहु मोंहि तुम्ह' साधु-सुभाऊ।
दीनन्ह रच्छक सभ मन भाऊ।।
अस कहि कंस पकरि तिन्ह चरना।
रोवत रहा जाइ नहिं बरना ।।
तिनहिं मुक्त करि बंदी-गृह तें।
लगा दिखावन प्रेम हृदय तें।।
देवकि लखि कंसइ पछितावा।
दीन्ह छमा तेहिं प्रेम सुभावा।।
भूलि क तासु सकल अपराधू।
कह बसुदेवहिं नेह अगाधू।।
तोर बचन हे कंस मनस्वी।
परम उचित अस कहहिं तपस्वी।
जब 'मैं' भाव जीव महँ आवै।
जीवहि ग्यान-भ्रष्ट कहलावै।।
'तव'-'मम'-भेद तुरत उपजावै।
'अपुन'-'पराया'-पाठ पढ़ावै।।
उपजै सोक-लोभ-मद-द्वेषा।
भय उर बसै साथ लइ क्लेसा।।
जीव न समुझइ भगवत माया।
रहइ सदा माया-भरमाया ।।
सोरठा-कहे मुनी सुकदेव, सुनहु परिच्छित ध्यान धरि।
देवकि अरु बसुदेव, छमा कीन्ह कंसहिं तुरत।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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