तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-20
पंख काटि कछु देर न लागा।
सिय सँग रथ चढ़ि रावन भागा।।
बिलखत-रोवत सीता नभ तें।
पुनि-पुनि सुमिरि राम कहँ तहँ तें।।
निज पट एक गइराईं गिरि पे।
लखि बहु कपिन्ह रहत तब तेहिं पे।।
पहुँचा अति लाघव खल लंका।
सीय चोराइ बजाया डंका ।।
सियहिं रखा तुरतहिं असोक बन।
भावी जुगुति लाइ हिय-चित-मन।।
लखि सीता गति ब्रह्मा ब्याकुल।
देवराज बुलाइ कह आकुल।।
जाहु इंद्र अति गुप्त सीय पहँ।
रखा असोक तरहिं रावन जहँ।।
सुंदर हबि मैं सौंपहुँ तुमहीं।
खीर देइ तेहिं आवहु अबहीं।।
जे नर हबि-प्रसाद ई खावै।
भूखि-पियासिहिं ताहि न आवै।।
बरिष सहस दस रहै यथावत।
बल-पौरुष-बुधि संग तथावत।।
इंद्र पहुँचि तहँ माया करहीं।
इंद्र-जाल फँसि रच्छक भवहीं।।
बिनु कहु लखा पहुँचि सीता पहँ।
धीमी बचन बताइ नाम तहँ ।।
खीर खवाइ तुरत चलि दीन्हा।
सियहिं बखानि खीर-गुन-चीन्हा।।
इंद्रहिं जानि सीय निज पितु इव।
भईं मुदित जस भ्रमर पराग पिव।।
दोहा-खीर-पान करि तरु तरे, सीता बिनु बिश्राम।
रोवहिं-बिलखहिं मनहिं-मन,सुमिरहिं हर छिन राम।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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सातवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-3
बिनु सुत बिलखहिं जसुमति मैया।
बछरू बिनू बिकल जस गैया।।
बेसुध बिकल परीं जा महि पे।
धावत आईं गोपी वहिं पे ।।
कहँ गे हमरे किसुन-कन्हैया।
कहि-कहि बिलखहिं गोपिहिं-मैया।।
उधर गगन महँ किसुन क भारा।
जब सहि सका न दनुज बेचारा।।
भई सिथिल गति तुरत बवंडर।
भवा सांत तुफान भयंकर।।
त्रिनावर्त कै गला किसुन जी।
कसि के पकरे रहे ललन जी।।
परबत नीलहिं भार समाना।
रहे कृष्न सिसु पहिरे बाना।।
भवा दैत्य बड़ बिकल-बेचैना।
बाहर निकसि गए तिसु नैना।।
निकसा प्रान असुर कै तुरतइ।
खंड-खंड भे तन भुइँ गिरतइ।।
सिव-सर-हत त्रिपुरासुर रहई।
त्रिनावर्त गति वैसै भवई।।
लटकि रहे तिसु गरे कन्हैया।
करत रहे जनु ता-ता-थैया।।
पाइ सुरच्छित किसुनहिं माता।
परम मुदित भे पुलकित गाता।।
अद्भुत घटना बड़ ई रहई।
गोपी-गोप-नंद सभ कहई।।
बालक कृष्न मृत्यु-मुख माहीं।
भगवत कृपा कि बच के आहीं।।
अवसि कछुक रह पुन्यहि कामा।
यहि तें बचा मोर घनस्यामा।।
बड़-बड़ भागि हमहिं सभ जन कै।
अवा लवटि ई बालक बचि कै।।
दोहा-एक बेरि माता जसू,कृष्न लेइ निज गोद।
रहीं पियावत दुग्ध निज,उरहिं अमोद-प्रमोद।।
करिकै स्तन-पान जब,कृष्न लिए मुहँ तानि।
लेत जम्हाई मुहँ खुला,जसुमति बिस्व लखानि।।
दोहा-अन्तरिच्छ-रबि-ससि-अगिनि,ज्योतिर्मंडल-बन।
नभ-सागर-परबत-सरित,मुख मा द्वीप-पवन।।
सकल चराचर जगत रह,कृष्न मुखहिं ब्रह्मण्ड।
जसुमति-लोचन बंद भे,लखतै रूप अखण्ड।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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