प्रेयसी तुम रूठ गयी हो.......
मुझे बता दो क्यों अकारण
प्रेयसी! तुम रूठ गयी हो,
क्या है तेरा यही निवारण
मेरे उर को लूट गयी हो।
मेरे आत्मनगर में कल-कल
तुम सरिता सी बहती थी,
मैं ही हूँ जग से प्यारा
यह तुम मुझसे कहती थी।
पूनम की रजनी में चन्द्र की
किरणों से तुम खेल रही थी,
तेरे बिम्बाधरों पर भी तो
प्रणय की स्मिति खेल रही थी।
मेरे आलिंगन में आकर तुम
मादकता बिखरा देती थी,
चल रहे मलय पवन में तुम
अलकों को बिखरा देती थी।
वो चंचल चतुर नयन तुम्हारे
गुप-चुप सम्भाषण करते थे,
हो जाते रोम-रोम प्रफुल्लित
मुझमें आकर्षण भरते थे।
मेरे स्वप्न लोक में आकर
स्नेहिल ऊर्जा भर देती थी,
जीने का साहस देती थी तुम
जीवन में रस भर देती थी।
उषाकाल में उपवन में तुम
संकेतों से मुझे बुलाती थी,
नीहार नहाये फूलों से तुम
बरबस ही ललचाती थी।
तन्वंगी! तेरे उत्तुंग शिखर पर
काम अनल का वो..जलना,
मेरे हृदय के वन-उपवन में
उन कोमल सपनों का पलना।
जब अतीत के दुर्दिन में भी
हम एक दूजे के साथ रहे,
विश्वास परस्पर इतना था
हम साथ-साथ दिन-रात रहे।
किंचित मतभेदों के कारण
प्रिय! कदापि रुष्ट नहीं होते,
अपनों से जो त्रुटि हो जाये
तो अपने असंतुष्ट नहीं होते।
डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें