मूरख रहता सदा अचेत,बड़ बड़ बड़ बड़ बोला करता।
नहीं बुद्धि में रहती जान,बना निरंकुश सदा बहकता।
खाने का है नहीं ठिकान,बातें करता है महलों की।
उसके आगे दुनिया फेल,सिर्फ वही उत्तीर्ण विश्व में।
नहीं जेब में पैसा एक,बनता मूरख अरबपती है।
सदा बघारत अपनी शान,बढ़-चढ़ करके बोला करता।
करता अपना सत्यानाश,किन्तु हैकड़ी नहीं छूटती।
चलता रहता सदा उतान,अति दंभी मूरख अज्ञानी।
पाता नहीं कहीं सम्मान,फिर भी मूरख ऐंठा रहता।
रचनाकार :डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
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