ओंकार त्रिपाठी। लगभग 30 वर्ष से साहित्य साधना। आकाशवाणी दिल्ली के युव वाणी केंद्र, विदेश प्रसारण प्रभाग से लगातार 8 वर्षों तक काव्य पाठ। नव भारत टाइम्स, पंजाब केसरी, अमर उजाला जैसे राष्ट्रीय समाचार पत्रों एवं अनेक स्थानीय दैनिक समाचार पत्रों तथाच पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। दो पुस्तकों का प्रकाशन।
मो0 99536 31374
(1) बंद खिड़की चलो खोल दें याद की
चैत की चांदनी में जरुरत पड़ी
फागुनी आग की,
बंद खिड़की चलो खोल दें याद की।
फिर मिलें चलके डल झील के नीर से
मन की कश्ती को बांधे किसी तीर से
याद आती मसूरी की वे वादियां
जिनमें शीतल हुईं जून की गर्मियां
साथ नाची हिमाचल की शहजादियां
रूप के गांव की
धूप ने यह कहा
फिर से छलका दो गगरी किसी राग की
बंद खिड़की चलो खोल दें याद की।
चैत की --------------
हम भी मालिक रहे, प्यार जागीर के
हम भी रांझा थे मनहर किसी हीर के
देवताओं से ज्यादा विभव सम्पदा
एक नंदन विपिन था सुमन से लदा
दूध की उस नदी का था रंग साँवला
प्राण की मौन वंशी ने फिर यह कहा
चूनरी पर है गाथा किसी फाग की
बंद खिड़की चलो खोल दें याद की।
चैत की चांदनी---------
नयन में सिमटती वो गोदावरी
ओठ पर धर गई आस आसावरी
केश घन मंजु आनन पे बिखरे हुए
रातरानी के घर के बने पहरुए
तन को पुलकन मिली है बिना तन छुए
एक चिड़िया फुदककर कहे डाल पर
अनमनी मंजरी है अभी बाग की
बंद खिड़की चलो खोल दें याद की।
चैत की चांदनी------
आग दहकेगी जब शबनमी देह में
दीप खुद जल उठेगा किसी गेह में
क्यों बहे जा रहे हो निराधार से
नीर लाओ तो मानेंगे मझधार से
मत उड़ो व्योम में व्यर्थ घनसार से
स्वाति कोई तो भर दो खुली सीप में
है जरुरत न मुझको गुणा भाग की
बंद खिड़की चलो खोल दें याद की।
चैत की चांदनी में--------------
(2) कच्चे धागे से
कच्चे धागे में बधा हुआ
भाई- बहना का प्यार
है लाया राखी का त्यौहार।
ये रिश्ता है सबसे अनमोल
न इसको किसी तुला में तोल
है इसमें रक्षा का विश्वास
बहन का भाई का अहसास
यही इस रिश्ते का आधार
है लाया राखी का त्यौहार।
ये पावनता का बन्धन है
भावना का अभिनंदन है
बहन भाई के माथे पर
लगाती रोली चन्दन है
बहन का भाई पर मनुहार
है लाया राखी का त्यौहार।
(3) उठो! अब भोर हो गयी
उठो !अब, भोर हो गयी।
प्रात झुरमुट से झाँके,
नींद करवट ले जागे।
शोर पायल करती है,
फिर से पनघट के आगे।
दिवाकर धीरे-धीरे
पर्वतों से नीचे आते।
ओस कण मोती बनकर,
धरा के मन को सरसाते।
उषा अंगड़ाई लेती
पवन मकरंद बो गयी।
उठो! अब भोर हो गयी।
(4)मेरे मन में क्यों हलचल है
पुरवा के झोंके लिपटे हैं गदराई बदरी के तन से।
मेरे मन में क्यों हलचल है मुझसे मत पूंछो, खुद समझो।
टपक-टपक कर, क्या कहता है, पेड़ों की साखों से पानी।
प्रीत सरोवर में बिन डूबे, शापित है हर एक जवानी।
घन गर्जन ने जगा दिया है, सोयी हुई कामनाओं को।
आलिंगन में बांध धरा को, पहनाता है चूनर धानी।
दो गुलाब के फूल, चुराकर लाए हैं पराग नंदन से।
मेरे मन में क्यों हलचल है, मुझसे मत पूंछो, खुद समझो।
पुरवा के झोंके लिपटे हैं गदराई बदरी के तन से।
मेरे मन में क्यों हलचल है मुझसे मत पूंछो, खुद समझो।
टपक-टपक कर, क्या कहता है, पेड़ों की साखों से पानी।
प्रीत सरोवर में बिन डूबे, शापित है हर एक जवानी।
घन गर्जन ने जगा दिया है, सोयी हुई कामनाओं को।
आलिंगन में बांध धरा को, पहनाता है चूनर धानी।
दो गुलाब के फूल, चुराकर लाए हैं पराग नंदन से।
मेरे मन में क्यों हलचल है, मुझसे मत पूंछो, खुद समझो।
पुरवा के झोंके लिपटे हैं गदराई बदरी के तन से।
मेरे मन में क्यों हलचल है मुझसे मत पूंछो, खुद समझो।
(5) मेरे गीत जलेंगे निशि-दिन
परिवर्तन को
मेरे गीत जलेंगे निशि-दिन
जग पीड़ा ले
छन्द बुनूंगा
मैं गीतों में गंध बुनूंगा
छल छल भाव
छलक जाएगा
मानस घन से
मेरे मन से
लेकिन यह सब कैसे होगा
रोटी के बिन।
परिवर्तन को
मेरे गीत जलेंगे निशि-दिन।
भूख लगी तो
आग लिखूंगा।
आज़ादी पर
दाग लिखूंगा।
टप-टप क्रांति
टपक जायेगी
शब्द-शब्द से
गीत-छ्न्द से।
जयचन्दों से बदला ले लेगी
वह गिन-गिन।
परिवर्तन को
मेरे गीत जलेंगे निशि-दिन।
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