प्रकृति
अंग अंग है नशीला प्रकृति का
धूप छाँव का हुआ अज्जब खेला
चमकता सूरज ,घिरता मेघों से
प्रचंडता से फिर कहीं चमकता।
आह किसी की मुझे है लगती
विरह वेदना किसी की जलती
दुब सहेजे रखती शबनम को
बड़े प्रेम से रोज ही मिलती ।
नन्ही शबनम के रूप निराले ,
भावनाओं के बुने हैं जाले ।
ये तो मानव तुझ पर निर्भर है ,
चाहे इसे जिस रूप में पाले ।
कभी बूंद बूंद नेह बरसता
आँचल में भरा स्नेह ढ़ेर सा
कभी लगे प्रियतमा के आँसू
कभी माँ का आँचल सा दिखता ।
निशा अतुल्य
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