राजेंद्र रायपुरी

नारी, नवयुग की 


 


अबला अब मत समझो उसको,


 उसने करने की सब ठानी। 


  अपने दम पर कहलाएगी, 


   वो अपने राजा की रानी।


 


है बचा कौन सा क्षेत्र कहो,


 जिसमें परचम लहरा न सकी। 


  है मंज़िल ऐसा कौन कहो,


   जिसको नारी है पा न सकी।


 


वो गए ज़माने बीत सुनो,


 जब घूॅ॑घट नहीं उठाती थी।


  ड्योढ़ी के बाहर कदम कभी,


   ख़ुद होकर नहीं बढ़ाती थी‌।


 


वो खेतों में खलिहानों में,


 वो खेल-कूद मैदानों में।


  वो मिल जाएगी ड्यूटी पर,


   जाकर देखो तुम थानों में।


 


वो जल में, थल में, नभ में भी,


 अपना करतब है दिखलाती।


  हर मोर्चे पर डट कर ही वो,


   नवयुग की नारी कहलाती।


 


बन नहीं द्रौपदी रहना है,


 उसने मन है अब ठान लिया।


  नवयुग की नारी कैसी हो,


   उसने है अब पहचान लिया।


 


सर ऊॅ॑चा करके रहती है।


 अब नहीं ज़ुल्म वो सहती है। 


  बनकर नवयुग की सरिता वो,


   अब कल-कल कल-कल बहती है।


 


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


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