संजय जैन

रूठ न जाये


इस बात का डर है,


वो कहीँ रूठ न जायेंI


नाजुक से है अरमान मेरे, 


कही टूट न जायें।।


 


फूलों से भी नाजुक है, 


उनके होठों की नरमी I


सूरज झुलस जाये, 


ऐसी सांसों की गरमी I


इस हुस्न की मस्ती को,  


कोई लूट न जाये I


इस बात का डर है,


वो कहीँ रूठ न जायें I।


 


चलते है तो नदियों की, 


अदा साथ लेके वो।


घर मेरा बहा देते है,


बस मुस्कुराके वो I


लहरों में कहीँ साथ,


मेरा छूट न जाये I


इस बात का डर है,


वो कहीँ रूठ न जायें I।


 


छतपे गये थे सुबह तो, 


दीदार कर लिया I


मिलने को कहा शामको, 


तो इनकार कर दिया I


ये सिलसिला भी फ़िरसे, 


कहीँ टूट न जाये।


इस बात का डर है,


वो कहीँ रूठ न जायें I।


 


क्या गारंटी है की फिरसे, 


कही वो रूठ न जाये।


मिलाने का बोल कर 


कही भूल न जाये।


हम बैठे रहे बाग़ में,


उनका इंतजार करके।


इस बात का डर है,


वो कहीँ रूठ न जायें I।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुंबई )


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