क्यों-न ढूंढे सुख अपना?
देखा था एक सुंदर सपना,
सच होता न होता अपना।
चाहत के रंगो संग फिर,
कब-होता वो साथी अपना?
सपनो की शहजादी बन कर,
जो छलती वो जीवन सपना।
मिल कर बिछुड़ने को फिर,
क्यों-हरती सुख अपना?
सुख की चाहत संग जग में,
कभी बीता न एक पल अपना।
सपने तो सपने साथी फिर,
क्यों-न ढूंढे सुख अपना?
सुनील कुमार गुप्ता
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