पहुँच से दूर साहिल देखता हूँ
करीब-ऐ-मौत तिल-तिल देखता हूँ
नज़र जाती है जब भी आइने पर
मुक़ाबिल अपना क़ातिल देखता हूँ
मुलाकातें बढ़ीं जब से यकायक
उसे मैं ख़ुद में शामिल देखता हूँ
निगाहें चीख उठती हैं उसी दम
अगर उल्फ़त में बिस्मिल देखता हूँ
नज़र जिस सम्त भी जाती है अब तो
तेरी यादों की महफ़िल देखता हूँ
तेरे नक़्श-ऐ-क़दम की ही बदौलत
निगाहों में मैं मंज़िल देखता हूँ
उसे पूजा है जब से मैंने *साग़र*
जहां से ख़ुद को ग़ाफ़िल देखता हूँ
🖋️विनय साग़र जायसवाल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें