विनय साग़र जायसवाल

इस तरह हर इक ख़ुशी है अब मेरे दिल के करीब


जैसे इक मुफ़लिस झिझक जाता है महफ़िल के करीब


 


ज़िन्दगी की उलझनों में घिर गया मेरा वजूद


कोई तो मुश्किल कुशा मिल जाये मुश्किल के करीब


 


इश्क़ का इन्आम है या उनकी नज़रों का करम


इक ख़लिश महसूस होती है मुझे दिल के करीब


 


क्या बिगाड़ेंगी मेरा मोजें तेरे होते हुए


ग़म नहीं तूफान का जब तू है साहिल के करीब


 


कोई भी वादा वफ़ा यूँ वक़्त पर होता नहीं


वक़्त की भी अहमियत क्या मुझसे ग़ाफ़िल के करीब


 


मैं तो आदी हूँ हरिक ग़म से मेरी पहचान है


फिर कोई मुश्किल रहेगी कैसे मुश्किल के करीब


 


किस कदर शर्मिंदा है इन्सान से 


इंसानियत 


कोई रुकता ही नहीं है आज बिस्मिल के करीब 


 


वक़्त के गेसू वो *साग़र* किस तरह सुलझायेगा 


जो मुसाफिर सो गया हो थक के मंज़िल के करीब 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


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