डा. नीलम

*नारी हूँ*


 


माना के नारी हूँ मैं


अपनों के हाथों मारी हूँ मैं


पर कमजोर नहीं मैं


वक्त पड़ने पर मर्दों पर


भी भारी हूँ मैं


 


दर्द को राग में पिरो


तराने गुनगुना लेती हूँ


अपनों के दिए जख्मों


पर मुस्कान की 


मरहम लगा लेती हूँ


 


पीर जब बड़ जाती पीड़ा की , दे थाप ढोलक पर


गीत मन गुनगुना


मन अपना बहलाती हूँ


 


दो घर की राजरानी


कहने वालों के


हाथों ही ,जब तकदीर


बिगड़ती है मेरी


बैठ अकेले में ही 


अपना मन बहलाती हूँ


 


सोज मैं ,साज मैं


अपनी ही आवाज भी हूँ


चोट जमाने की खा- खाकर


भीतर ही भीतर मजबूत


अपने आप को बना लेती हूँ


 


जहर जमाने का पीकर 


भीतर ही भीतर


विष आत्मसात कर लेती हूँ


बनकर फिर नीलकंठी


वक्त आने पर 


रणचंडी भी बन लेती हूँ।


 


               डा. नीलम


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