*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-11
बरषा-काल मदार न फूलै।
बिमल राज जस खल पथ भूलै।।
सस्य-स्यामला महि उपकारी।
जनु धन सुजन जगत-सुखकारी।
हलधर निपुन निरावहिं खेती।
जस बुध-जन परिहरहिं अनीती।।
चक्रवाक नहिं बरषा-काला।
कलिजुग महँ जस धरम अकाला।।
ऊसर भूमि हरित नहिं भवही।
प्रभु-जन जस न बासना बसही।।
कबहुँ-कबहुँ नभ जलद-बिहीना।
बहइ समीर जबर जेहि दीना।।
जस सद्धर्म हीन कुल होवै।
पा कुपुत्र धन-संपति खोवै।।
दोहा-कबहुँ त सूरज नहिं दिखे,तम महँ कबहुँ लखाय।
मिलै ग्यान जस सुजन सँग,दुरजन मिलत बिलाय।।
बरषा-ऋतु महँ पथिक जस,इत-उत कतहुँ न जाय।
बिषयी मन भटके नहीं,ग्यान-जोति वस पाय ।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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