डॉ. हरि नाथ मिश्र

*प्रकृति-प्रेम*


न फूलों का चमन उजड़े,शज़र उजड़े,न वन उजड़े।


न उजड़े आशियाँ पशु-पंछियों का-


हमें महफ़ूज़ रखना है ,जो बहता जल है नदियों का।।


          रहें महफ़ूज़ खुशबू से महकती वादियाँ अपनी,


          सुखी-समृद्ध खुशियों से चहकतीं घाटियाँ अपनी।


          रहें वो ग्लेशियर भी नित जो है जलस्रोत सदियों का


                                        हमें महफ़ूज़....


हवा जो प्राण रक्षक है,हमारी साँस में घुलती,


इशारे पे ही क़ुदरत के,सदा चारो तरफ बहती।


रखना इसे महफ़ूज़ उससे ,जो है मलबा गलियों का-


                               हमें महफ़ूज़....।।


        नहीं भाती छलावे-छद्म की भाषा इस कुदरत को,


       समझ आती महज़ इक प्यार की भाषा इस कुदरत को।


यही है ज्ञान का मख्तब,कल्पना-लोक कवियों का- 


                      हमें महफ़ूज़....।


नज़ारे सारे कुदरत के यहाँ संजीवनी जग की,


हिफ़ाज़त इनकी करने से हिफ़ाज़त होगी हम सबकी।


सदा कुदरत से होता है सुखी जीवन भी दुखियों का-


                   हमें महफ़ूज़....।।


     सितारे-चाँद-सूरज से रहे रौशन फ़लक प्रतिपल,


    न आये ज़लज़ला कोई,मिटाने ज़िन्दगी के पल।


  महज़ सपना यही रहता है,सूफ़ी-संत-मुनियों का-


                हमें महफ़ूज़....।।


जमीं का पेड़ जीवन है लता या पुष्प-वन-उपवन,


धरोहर हैं धरा की ये ,सभी पर्वत-चमन-गुलशन।


प्रकृति ही देवता समझो,प्रकृति ही देश परियों का-


               हमें महफ़ूज़...।।


   पहन गहना गुलों का ये ज़मीं महके तो बेहतर है,


  समय-सुर-ताल पे बादल यहाँ बरसे तो बेहतर है।


प्रदूषण मुक्त हो दुनिया,बने सुख-धाम छवियों का-


         हमें महफ़ूज़ रखना है....।।


               © डॉ0हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


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