डॉ. हरि नाथ मिश्र

*नौवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-3


अस प्रभु बालक जानि क माता।


बान्हीं ऊखल संग बिधाता।।


     उधमी-नटखट लला कन्हाई।


     रस्सी लइ जब बान्हहिं माई।।


दुइ अंगुल भे छोटइ रस्सी।


अपर रज्जु तब जोड़हिं कस्सी।।


    जोड़हिं रस्सी पुनि-पुनि माता।


     पुनि-पुनि दुइ अंगुल रहि जाता।।


कटि पातर औ रस्सी भारी।


तदपि न आटे कटि गिरधारी।।


     भईं पसीना लथ-पथ माता।


      बान्हहिं कइसे समुझि न आता।।


लखि-लखि गोपी सभ मुस्काएँ।


मातु जसोदा बान्ह न पाएँ ।।


     लखि के बिकल-थकित बड़ माई।


     तुरतयि ऊखल जाइ बन्हाई ।।


सुनहु परिच्छित मन चितलाई।


परम सुतंत्रहिं किसुन कन्हाई।।


      ब्रह्मा-इंद्रहिं अरु संसारा।


      बस मा रहहिं कृष्न कहँ सारा।।


पर रह प्रभू भगत के बस मा।


बंधन इहहि अटूट जगत मा।।


    रहै बरू कोउ ब्रह्मा-पुत्तर।


    आतम होवै बरु कोउ संकर।।


होवै भले ऊ लछिमी-पतिहीं।


वहि न मिलै मुकुंद परसदहीं।।


      लीं प्रसाद जे जसुमति माता।


      जनम जासु ग्वाल-कुल जाता।।


जे प्रसाद मुकुंद भगवाना।


नहिं ऊ सुलभ जोग-तप-ग्याना।।


    अस प्रसाद बस भगतहिं मिलई।


    ऋषिहिं-मुनिहिं ई दुर्लभ रहईं।।


दोहा-नारद सापहिं पाइ के,ठाढ़ि रहे बनि बृच्छ।


         भई कृपा प्रभु कृष्न कै, पुनि ते भे जनु सिच्छ।।


         धन-घमंड के कारनहिं,दिए मुनी तिन्ह साप।


         स्वयं रहे बंधन बँधे,मुक्त कीन्ह तिन्ह पाप।।


        कीन्ह मुक्त अर्जुन बिटप,नलकूबर,मणिग्रीव।


        बँधि ऊखल मा स्वतः प्रभु,पुत्र कुबेर सजीव।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


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