*नौवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-3
अस प्रभु बालक जानि क माता।
बान्हीं ऊखल संग बिधाता।।
उधमी-नटखट लला कन्हाई।
रस्सी लइ जब बान्हहिं माई।।
दुइ अंगुल भे छोटइ रस्सी।
अपर रज्जु तब जोड़हिं कस्सी।।
जोड़हिं रस्सी पुनि-पुनि माता।
पुनि-पुनि दुइ अंगुल रहि जाता।।
कटि पातर औ रस्सी भारी।
तदपि न आटे कटि गिरधारी।।
भईं पसीना लथ-पथ माता।
बान्हहिं कइसे समुझि न आता।।
लखि-लखि गोपी सभ मुस्काएँ।
मातु जसोदा बान्ह न पाएँ ।।
लखि के बिकल-थकित बड़ माई।
तुरतयि ऊखल जाइ बन्हाई ।।
सुनहु परिच्छित मन चितलाई।
परम सुतंत्रहिं किसुन कन्हाई।।
ब्रह्मा-इंद्रहिं अरु संसारा।
बस मा रहहिं कृष्न कहँ सारा।।
पर रह प्रभू भगत के बस मा।
बंधन इहहि अटूट जगत मा।।
रहै बरू कोउ ब्रह्मा-पुत्तर।
आतम होवै बरु कोउ संकर।।
होवै भले ऊ लछिमी-पतिहीं।
वहि न मिलै मुकुंद परसदहीं।।
लीं प्रसाद जे जसुमति माता।
जनम जासु ग्वाल-कुल जाता।।
जे प्रसाद मुकुंद भगवाना।
नहिं ऊ सुलभ जोग-तप-ग्याना।।
अस प्रसाद बस भगतहिं मिलई।
ऋषिहिं-मुनिहिं ई दुर्लभ रहईं।।
दोहा-नारद सापहिं पाइ के,ठाढ़ि रहे बनि बृच्छ।
भई कृपा प्रभु कृष्न कै, पुनि ते भे जनु सिच्छ।।
धन-घमंड के कारनहिं,दिए मुनी तिन्ह साप।
स्वयं रहे बंधन बँधे,मुक्त कीन्ह तिन्ह पाप।।
कीन्ह मुक्त अर्जुन बिटप,नलकूबर,मणिग्रीव।
बँधि ऊखल मा स्वतः प्रभु,पुत्र कुबेर सजीव।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें