डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-4


लखि लछिमन अस प्रीति नियारी।


रामचरित सभ कह तहँ डारी ।।


      सुनि सुग्रीव नीर भरि लोचन।


      कह सिय मिलहिं मुक्त भव सोचन।।


एक बेरि यहँ बैठि मंत्रि सँग।


मैं देखउँ सिय जात गगन-मग।।


     राम-राम बिलपत मग सीता।


      कोउ खल रथहीं बैठि सभीता।।


देखि हमन्ह सभ निज पट फेंकी।


कह तिसु लखि प्रभु की बड़ नेकी।।


     सुनहु नाथ हम सेवक तोरा।


     खोजब अवसि मातु सिय मोरा।।


तब पूछे हरषित रघुबीरा।


कारन कवन रहसि गिरि धीरा।।


    सुनहु नाथ हम भाई दोऊ।


     को बड़-लघु लखि सकै न कोऊ।।


एक बेरि मय-सुत मायाबी।


आवा पुर मोरे हो हाबी ।।


     आधी रात पहर कै बेला।


     कीन्हा दनुज द्वार बड़ खेला।।


बालि-बालि कहि नाम पुकारा।


बाली सहि न सका ललकारा।।


     लखि मायाबी आवत बाली।


     चला भाग तजि द्वारहि हाली।।


धाइ गया मैं बाली संगा।


गुहा छुपा मयाबि करि दंगा।।


     बाली कहा रहहु पखवारा।


     गुहा-द्वार पे बनि रखवारा।।


पाऊँ लवटि न जे तेहि अवधी।


समुझउ मोंहि मायाबी बधी।।


   सुनहु नाथ निज हिय धरि धीरा।


    जोहे मास एक सहि पीरा ।।


रुधिर-धार जब देखा भारी।


ढाँकि सिला तें गुफा-दुवारी।।


     भागि चला मैं तुरत पराई।


     जानि मृत्यु आवत नियराई।।


दोहा-मारि अबहिं मम भ्रात कहँ,अवसि मयाबी आय।


        करी मोर बध अपि तुरत,एहिं तें चला पराय।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


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