डॉ. हरि नाथ मिश्र

*अष्टावक्र गीता*-16


धन्य पुरुष लख जगत की,सारी इच्छा व्यर्थ।


 जीवन-इच्छा-भोग को,माने सदा अनर्थ।।


 


हैं दूषित त्रय ताप ये,निंदा-योग्य,असार।


इसी सत्य को जानकर,होते शांत विचार।।


 


कौन उम्र वा काल में,रहे न संशय-जाल।


अस्तु,काट भ्रम-जाल को,सिद्धि-लब्ध हो लाल।।


 


योगी-साधु-महर्षि सब,लखकर मत संभ्रांत।


जग में है वह कौन नर,जो न विरत-मन-शांत।।


 


ज्ञानवान-चैतन्य गुरु,होता परम महान।


जन्म-मृत्यु से मुक्ति का,देता ऊँचा ज्ञान।।


           ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


             9919446372


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