*अष्टावक्र गीता*-16
धन्य पुरुष लख जगत की,सारी इच्छा व्यर्थ।
जीवन-इच्छा-भोग को,माने सदा अनर्थ।।
हैं दूषित त्रय ताप ये,निंदा-योग्य,असार।
इसी सत्य को जानकर,होते शांत विचार।।
कौन उम्र वा काल में,रहे न संशय-जाल।
अस्तु,काट भ्रम-जाल को,सिद्धि-लब्ध हो लाल।।
योगी-साधु-महर्षि सब,लखकर मत संभ्रांत।
जग में है वह कौन नर,जो न विरत-मन-शांत।।
ज्ञानवान-चैतन्य गुरु,होता परम महान।
जन्म-मृत्यु से मुक्ति का,देता ऊँचा ज्ञान।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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