डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-2


ऋष्यमूक गिरि-मग प्रभु चलहीं।


सचिव सहित कपीस जहँ रहहीं।।


     लखि के लखन सहित प्रभु आवत।


     संसय मन सुग्रीवयि धावत ।।


सुनु हनुमंत कहहि सुग्रीवा।


हती बालि मोहिं धरि मम ग्रीवा।।


     यहि कारन भेजा दुइ बीरा।


     हृष्ट-पुष्ट अरु गठित सरीरा।।


बटुक भेष धरि तुम्ह हनुमाना।


पूछहु तिनहिं इहाँ कस आना।।


    नहिं तै अबहिं त्यागि गिरि जाइब।


    छाँड़ि सैल ई कतहुँ पराइब।।


तब धरि भेष बटुक हनुमंता।


पहुँचे जहाँ रहे भगवंता।।


     बटुक-रूप अवनत कर जोरे।


     पूछहिं हनुमत भाव-बिभोरे।।


तमहिं कवन बताउ रन-बाँकुर।


फिरऊ इहाँ रूप धरि ठाकुर।।


     साँवर राम,लखन-तन गोरा।


     निरखत छबि मन होय बिभोरा।।


कोमल पद यहिं बन-पथ फिरहीं।


कारन कवन बतावउ हमहीं।।


     लागत तुम्ह जनु हो प्रभु सोऊ।


     ब्रह्मा-बिष्नु-महेसहि कोऊ।।


नर की तुमहिं नरायन रूपा।


की तुम्ह दोऊ रूप अनूपा।।


    की तुम्ह लीन्ह मनुज अवतारा।


    भव-भय-तारन इहहिं पधारा।।


बिचरहु बन-भुइँ आभड़-खाभड़।


पाँव नरम पथ पाथर-काँकड़।।


     तब प्रभु राम कहा सुनु बिप्रहु।


      हम दोउ भ्राता दसरथ पुत्रहु।।


नामा राम-लखन नृप जाए।


पितु-आग्या लइ हम बन आए।।


    खोजत फिरहुँ प्रिया बैदेही।


    हरे जिनहिं निसिचर बन एही।।


प्रभुहिं-बचन सुनि कह हनुमाना।


प्रभु मम स्वामी मैं नहिं जाना।।


    प्रभु कै चरन छूइ कपि कहऊ।


    छमहु नाथ मैं जानि न सकऊ।।


पुलकित तन मुख बचन न आवा।


प्रभुहिं क जानि परम सुख पावा।।


    माया बस जीवहि जग रहई।


    सक न जानि प्रभु सत्ता इहई।।


दोहा-जीव जगत जब लगि रहै, रहै मोह-आबद्ध।


        मुक्ति न पावै बिनु कृपा,बिनु प्रभु के सानिद्ध।।


                       डॉ0हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


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