*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-13
सुनतै श्रुतन्ह लखन क्रोधातुर।
भवा तुरत सुग्रीव भयातुर।।
कहा पवन-सुत तुम्ह लइ तारा।
समुझावउ लखनहिं बहु बारा।।
लछिमन-चरन बंदि हनुमाना।
तारा सँग प्रभु-चरित बखाना।।
होइ बिनम्र लखन गृह लाए।
धोइ लखन-पद पलँग बिठाए।।
सीष नवा सुग्रिव पद गहही।
तुरत लखन तेहिं हृदय लगवही।।
ऋषि नहिं जग मा कोऊ असही।
जिनहिं बासना-नाग न डसही।।
सुनि सुग्रीव-बचन अस लछिमन।
बहु समुझाए कपिसहिं वहि छन।।
बहु कपि अरु अंगद लइ साथहिं।
गवा कपीस जहाँ रघुनाथहिं।।
प्रभु-पद सिर नवाइ कर जोरी।
छमहु नाथ कह ई त्रुटि मोरी।।
मैं बानर मूरख बड़ कामी।
हो रति-रत भूला निज स्वामी।।
नारी-नयन-बान सभ बेधहिं।
ऋषी-मुनी-जोगिन्ह-हिय सेंधहिं।।
सभ जन क्रोध-फाँस महँ फँसहीं।
माया-आहिनि सबहिं कहँ डसहीं।।
नहिं हो बिनू कृपा छुटकारा।
मैं बड़ अधम,करहु उपकारा।।
दोहा-सुनि अस बचन कपीस कै, राम कहे मुसकाइ।
करहु जतन कछु कपि-पती,सिय-सनेस मिलि जाइ।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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