डॉ. हरि नाथ मिश्र

*नवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-2


गाँठ चोटिका जब भे भंजित।


गिरनहिं लगे पुष्प जे गुंथित।।


     सुमुखी मातु जसोदा अंतहिं।


     निज कर गहीं लला भगवंतहिं।।


लगीं डराने अरु धमकाने।


डरपहिं किसुन न जाइ बखाने।।


     धनि-धनि भागि तोर हे माई।


     लखि तव भृकुटी डरैं कन्हाई।।


रोवहिं किसुन नियन अपराधी।


ब्रत टूटे जस रोवहिं साधी।।


      मलत अश्रु कज्जल भे आनन।


      अश्रु बहहि बरसै जस सावन।।


कान्हा कहहिं न डाँटउ माई।


अब नहिं मटुकी फोरब जाई।।


     सुनि अस बचनहिं किसुन बिधाता।


      सिंधु-नेह उमड़ा उर माता ।।


पुनि बिचार जसुमति-मन आवा।


बान्हि रखहुँ जे भाग न पावा।।


     रज्जु लेइ तुरतै तहँ बान्हा।


     जायँ न ताकि पराई कान्हा।।


जानहिं नहिं जनु प्रभु कै महिमा।


बाहर-भीतर नहिं कछु वहि मा।।


    प्रभु कै अंत न औरउ आदी।


     रहँ प्रभु पहिले रह जग बादी।।


बाहर-भीतर जगत क रूपा।


रहहिं प्रभू बस सतत अनूपा।।


     जे कछु इहवाँ परै लखाई।


     प्रभुहिं सबहिं मा जानउ भाई।।


इंद्री परे, अब्यक्त स्वरूपा।


अजित-अमिट अरु अलख-अनूपा।।


दोहा-किसुन अनंत बिराट अहँ,बिष्नु- रूप- अवतार।


        जे नहिं जानै भेद ई,मूरख कह संसार ।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


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